Monday, March 31, 2008

यह रहा टुथपेस्ट/टुथपावडर का कोरा सच......भाग II ( कंक्लूयडिंग पार्ट)

इस पोस्ट में हम ने आज हम यह फैसला करना है कि दांतों की सफाई टुथपेस्ट से हो, किसी आयुर्वैदिक टुथपावडर से हो, या फिर किसी और ढंग से हो। इस पोस्ट को लिखना तो शुरू कर दिया है लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि किस क्रम से शुरू करूं !.............मेरे ख्याल में दांतों की सफाई के लिये लोगों द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे विभिन्न तरीकों की चर्चा से शुरू करते हैं......

मैडीकेटिड टुथपेस्टें .....इन दवाई-युक्त पेस्टों को बहुत लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है ...होता यूं है कि जब किसी के दांतों में दर्द होता है, तो कोई मित्र-रिश्तेदार कोई ऐसी मैडीकेटिड टुथपेस्ट के नाम की सिफारिश कर देता है। बस, फिर क्या है ...अगले दिन से सारे परिवार द्वारा वही पेस्ट इस्तेमाल करनी शुरू कर दी जाती है। अकसर जिन लोगों के दांतों में ठंडा लगता है या मसूड़ों से खून आता है तो वे किसी दंत-चिकित्सक के पास जाने की बजाये अपने आप ही इस तरह की पेस्टें खरीद कर रगड़ने को मुनाफे का सौदा मानते हैं। कभी कभी कोई दंत-चिकित्सक भी इलाज के दौरान इस प्रकार की पेस्ट को कुछ दिनों के इस्तेमाल की सलाह देते हैं............लेकिन ,कुछ लोगों का तो बस यही एटीट्यूड हो जाता है हम क्यों इसे करना बंद करें, हमें तो बस एक बार नाम पता चलना चाहिये और वैसे भी जब हमें इस प्रकार की पेस्टों से आराम सा लग रहा है तो हम क्यों इसे इस्तेमाल करना बंद करें।

आज कल तो अखबारों में कुछ पेस्टें इस तरह के दावे करती भी दिखती हैं कि इन के इस्तेमाल से पायरिया रोग ठीक हो जाता है। आज तक तो मैंने ऐसी कोई करिश्माई टुथपेस्ट ना ही देखी ना ही सुनी कि जो इस पायरिया को ही ठीक कर दे। अगर पायरिया है तो इस का इलाज प्रशिक्षित दंत-चिकित्सक से करवाना ही होगा, और कोई विकल्प तो है ही नहीं, अगर दांतों में ठंडा-गर्म लगता है...तो भी दंत-चिकित्सक के पास जाकर इस का कारण पता करने के उपरांत इस का निवारण करना ही होगा। इस तरह की मैडीकेटिड टुथपेस्टें और कुछ करें ना करें....शायद लंबें समय तक दांत एवं मसूड़ों की बीमारियों के लक्षणों को दबा ज़रूर देती हैं और लोग एक अजीब तरह की फाल्स सैंस ऑफ सैक्यूरिटि में उलझे रहते हैं कि सब कुछ ठीक हो गया है जब कि इन पेस्टों की असलियत तो यह है कि इन के इस्तेमाल के बावजूद दांतों एवं मसूड़ों के रोग अपनी ही मस्ती में अंदर ही अंदर बढ़ते रहते हैं।

इस प्रकार की मैडीकेटिड टुथपेस्टों का नाम कुछ कारणों से मैं यहां लिख नहीं रहा हूं....लेकिन आप में से अधिकांश इन के बारे में पहले ही से जानते हैं और शायद कभी न कभी इन्हें किसी की रिक्मैंडेशन पर इस्तेमाल कर भी चुके होंगे।

आयुर्वैदिक टुथपावडर ....चूंकि मैं आयुर्वैदिक का प्रैक्टीशनर नहीं हूं...इसलिये इस संबंध में मेरे विचार बिल्कुल मेरी आबजर्वेशन पर ही आधारित हैं.....मैं वर्षों से इंतज़ार कर रहा हूं कि कोई आयुर्वैदिक विशेषज्ञ इन आयुर्वैदिक पावडरों के ऊपर भी तो प्रकाश डालें।

आप किसी आयुर्वैदिक पावडर की थोड़ी निंदा कर के तो देखिये...लोग शायद मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे। लेकिन भला क्यों करे निंदा, हम तो बस विज्ञान की बात करेंगे। मैं अकसर सोचता हूं कि हमारे लोगों की आयुर्वैदिक पर इतनी ज़्यादा आस्था होने का सब से फायदा इस तरह के आयुर्वैदिक पावडर एवं पेस्ट करने वाली कंपनियों ने ही उठाया है। फायदा ही नहीं उठाया, चांदी ही कूटी है। क्योंकि कितना आसान है कि किसी पेस्ट का अच्छा सा देसी नाम रख कर के लोगों की इस आस्था के साथ खिलवाड़ करना......ज़्यादातर लोगों को तो बस वैसे ही नाम ही से मतलब है....बस हो गया इन कंपनियों का काम....इन आयुर्वैदिक पेस्टों एवं पावडरों के अंदर क्या है, उधर झांकने की किसी पड़ी है....बस, नाम तो देसी है ना, सब ठीक ही होगा, और क्या ! अकसर लोग यही सोच लेते हैं।

अब इसे पढ़ते हुये आप में से कईं लोग यही सोच रहे हैं ना कि यह डाक्टर क्या कह रहा है, हज़ारों साल पुरानी आयुर्वैदिक चिकित्सा प्रणाली को ही बुरा भला कह रहा है। नहीं, मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा हूं क्योंकि आप की तरह मेरे मन में इस आयुर्वैदिक चिकित्सा प्रणाली का बहुत आदर है, सम्मान है !

अब आप सोच रहे होंगे कि फिर तकलीफ़ कहां है...तो मेरी सुनिये तकलीफ़ केवल यही है कि मेरे विचार में लोगों के आयुर्वैदिक शब्द के प्रति जो सैंटीमेंट्स हैं, उन को एक्सप्लायट किया जा रहा है।

एक विचार मेरे मन में अकसर आता है कि इन आयुर्वैदिक पावडरों की पैकिंग के बाहर इतने ज़्यादा घटक( ingredients) लिखे होते हैं कि एक बार तो खुशफहमी होनी लाज़मी सी ही लगती है कि यह पावडर तो डायरैक्ट अपनी दादी के दवाखाने से ही आ रहा है। लेकिन मेरा एक प्रयोग करने की इच्छा होती है कि जितने पैसों में ये पावडर बाज़ार में मिलते हैं, अगर उतने पैसे में ही इन घटकों को बाज़ार से खरीद कर पीस लिया जाये, तो क्या इतना बड़ा डिब्बा तैयार हो पायेगा। अब इस का जवाब आप सोचें !! वैसे पर्सनली मुझे तो कभी नहीं लगता कि इतने पैसे खर्च कर हम इतना बड़ा डिब्बा तैयार कर सकते हैं।


आज से बीस साल पहले मैंने इन आयुर्वैदिक पावडरों पर एक सर्वे किया था....इस के अंतर्गत मैंने यही पाया था कि कुछ डिब्बों पर विभिन्न घटकों की बात की जाती है कि ये इतने ग्राम , वे इतने ग्राम....और बाद में लिखा होता था कि इसे 100 ग्राम बनाने के लिये बाकी गेरू मिट्टी मिलाई गई है। इस तरह का सर्वेक्षण करने का कारण यही था कि उन दिनों कुछ इस तरह के पावडर बाज़ार में उपलब्ध थे जिन में तंबाखू भी मिला हुया था. लेकिन क्या आज कल ऐसे पावडर नहीं मिलते.....खूब मिलते हैं. इस देश में क्या नहीं बिकता !

हां, तो मैं बात कर रहा था कि मिट्टी की.....वास्तविकता यह है कि ऐसे किसी भी पावडर को दांतों पर घिसने से दांतों की बाहरी परत क्षति-ग्रस्त हो जाती है और दांतों में ठंडा-गर्म लगना शुरू हो जाता है। मेरे पास इतने मरीज़ आते हैं जिन के दांतों की पतली हालत देखते ही मैं एक मंजन का नाम लेकर पूछता हूं कि आप वह वाला मंजन तो नहीं घिस रहे.......बहुत बार मुझे इस का जवाब हां में ही मिलता है।

अब तो लगता है कि मेरी ये बातें सुन कर आप की पेशेन्स जवाब दे रही होगी कि डाक्टर बातों को ज़्यादा घोल-घोल मत घुमा.....हमें तो बस इतना बता कि क्या इन आयुर्वैदिक टुथ-पावडरों का इस्तेमाल जारी रखें। लेकिन मैं भी तो उसी बात ही आ रहा हूं।

मेरा दृढ़ विश्वास तो यही है कि किसी दातुन ( नीम, बबूल आदि) के इलावा अगर आप किसी आयुर्वैदिक मंजन का इस्तेमाल करना चाहते हैं तो उसे आप स्वयं ही क्यों नहीं तैयार करवा लेते......well, that is just my opinion simply based upon my so many years of keen observation !

सीधी सी बात है कि आप कोई भी आयुर्वैदिक मंजन इस्तेमाल करें ..बस इस बात का ध्यान रखें कि उस में कुछ भी हानिकारक घटक न मिलाया गया हो, और ना ही इस तरह का मंजन खुरदरा ही हो..............लेकिन मेरी दंत-चिकित्सक को बिना किसी दांतों की तकलीफ़ के भी साल में एक बार मिलने की बात अपनी जगह पर अटल है क्योंकि वाहिद एक वह ही शख्स है जो कि यह कह सकता है कि आप के दांत एवं मसूड़ों रोग-मुक्त हैं। वैसे बार बार मुझे यहां जो यह शब्द आयुर्वैदिक मंजन लिखना पड़ रहा है ...मुझे इस के लिये एक अपराधबोध हो रहा है...अब आयुर्वैदिक तो एक निहायत ही कारगुज़ार चिकित्सा पद्धति है और मैं जब यह बार बार लिख रहा हूं कि आयुर्वैदिक मंजन तो यही लगता है कि इस में आयुर्वेद का ही कुछ चक्कर है। ऐसा कुछ नहीं है.....केवल लोगों को एक्सप्लायट करने का एक धंधा है। इसलिये सोच रहा हूं कि इन जगह जगह बिकने वाले पावडरों को देसी पावडर ही क्यों ना कह दिया करूं !!

तो, मैसेज क्लियर है कि आप कुछ भी इस्तेमाल करिये लेकिन वह आप के दांतो एवं मसूड़ों के लिये नुकसानदायक नहीं होना चाहिये और आप के दंत-चिकित्सक के पास नियमित जा कर अपना चैक-अप करवाते रहिये।

वैसे चाहे यह पोस्ट तो मैं आज समाप्त कर रहा हूं लेकिन दातुन के सही इस्तेमाल पर एक पोस्ट शीघ्र ही लिखूंगा।

नमक-तेल, मेशरी, देसी साबुन, राख.... लोग तरह तरह के अन-स्पैसीफाइड तरीकों से भी दांत मांजते रहते हैं। मेरा इन के बारे में यही विचार है कि something is better than nothing……..as long as it does not pose any health hazard !......नमक तेल का इस्तेमाल तो अकसर होता ही है....अब फर्क तो यही है कि कोई तो इसे शौकिया तौर पर कभी कभी कर रहा है लेकिन कोई इसे मजबूरी वश करता है कि उस के पास महंगी पेस्ट-ब्रुश खरीदने का जुगाड़ नहीं है...........लेकिन फर्क क्या पड़ता है, अगर दंत-चिकित्सक द्वारा नियमित किया गया परीक्षण यही कह रहा है कि सब कुछ ठीक ठाक है तो आखिर हर्ज क्या है। इस में कोई शक नहीं है कि इस नमक-तेल को दांतों की सफाई करने का विधान भी तो सैंकड़ों वर्ष पुराना है। लेकिन तंबाकू को जला कर उसे दांतों एवं मसूड़ों पर घिसने का विधान तो कहीं नहीं था...यह तो हमारी ही खुराफात है....ये बंबई में लोगों द्वारा बहुत इस्तेमाल होता है और इस जले हुये तंबाकू को मेशरी कहा जाता है। दांत तो इस से खाक साफ होते होंगे लेकिन मुंह के कैंसर को इस के बढ़िया खुला आमंत्रण तो कोई हो ही नहीं सकता......एक तरह से मुंह का कैंसर मोल लेने का सुपरहिट फार्मूला। अब, कईं लोग देसी साबुन से दांत मांज लेते हैं ....यह भी गलत है क्योंकि इस में मौजूद कैमिकल्स की वजह से मुंह में घाव हो जाते हैं। कुछ लोगों को घर ही में आंच पर बादाम के छिलकों को जला कर मंजन तैयार करते देखा है। भारत के इस भाग में लोगों विशेषकर महिलाओं द्वारा दंदासा बहुत इस्तेमाल होता है.....यह अखरोट की छाल है जिसे दातुन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। मुस्लिम भाईयों में दांतों की सफाई के लिये मिस्वॉक का इस्तेमाल होता है ...जिस में बहुत से लाभदायक तत्व होने की बात सिद्ध हो चुकी है।

यह वाली बात यहीं पर यह कह कर समाप्त करता हूं कि आप जो भी वस्तु नित-प्रतिदिन अपने दांतों एवं मसूड़ों पर इस्तेमाल कर रहे हैं , वह हर तरह के नुकसानदायक गुणों से रहित होनी चाहिये और बेहतर होगा कि दंत-चिकित्सक से थोड़ी बात ही कर ली जाये।

सामान्य टुथपेस्ट ----टुथपेस्टों की आज बाज़ार में भरमार है। लेकिन जब मेरे से लोग पूछते हैं कि कौन सा पेस्ट इस्तेमाल करें तो मैं हमारे यहां उपलब्ध बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दो-तीन पेस्टों के नाम गिना देता हूं कि इन में से कोई भी कर लिया करो। इस के बारे में मैं स्वदेशी, देशी या परदेसी के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहता हूं ....मेरा तर्क है कि अगर किसी टाप कंपनी की पेस्ट मेरे किसी मरीज़ को किसी भी दूसरी पेस्ट के दाम में मिल रही है तो क्यों इस दूसरी (पेस्ट ही !....और कुछ न समझ लीजियेगा!) के चक्कर में पड़ना !

अमीर से अमीर देशों ने इन दांतों की बीमारियों को इलाज के द्वारा दुरूस्त करने की नाकामयाब कोशिशें की हैं, लेकिन अमेरिका जैसे अमीर देशों ने भी अपने हाथ खड़े कर दिये। तो, वैज्ञानिकों ने यह तय कर लिया कि अगर हम मुंह की बीमारियों पर विजय हासिल करना चाहते हैं तो हमें इन से बचाव का ही माडल अपनाना होगा। इसलिये दांतों की बीमारियों से बचने का सब से सुपरहिट साधन आखिर ढूंढ ही निकाल लिया गया जिस की सिफारिश विश्व-स्वास्थ्य संगठन भी करता है.....वह यही है कि हमें दिन में दो बार...सुबह और रात को सोने से पहले किसी भी फ्लोराइड-युक्त टुथपेस्ट से ही दांत साफ करने चाहिये। इसलिये आप भी टुथपेस्ट खरीदते समय यह ज़रूर चैक कर लिया करें कि उस में फ्लोराइड मिला हुया है। यह दांत की बीमारियों से बचने का बहुत बड़ा हथियार है। आज से बीस साल पहले इस फ्लोराइड के उपयोग के बारे में भी देश में दो खेमे बने हुये थे। इस के बारे में अगर कोई प्रश्न हो तो बतलाइएगा, किसी अगली पोस्ट में डिटेल में कवर कर लूंगा। ये फ्लोराइड युक्त पेस्ट को सात साल की उम्र से तो शुरू कर ही लेना चाहिये...लेकिन जैसे ही बच्चा चार साल का हो तो उस के ब्रुश पर इस पेस्ट की बिल्कुल थोड़ी सी पेस्ट लगा कर शुरू किया जा सकता है लेकिन यह ध्यान रहे कि बच्चा पेस्ट खाता न हो।

फिर कभी इस फ्लोराइड के बारे में , इस पेस्ट के एवं इस ब्रुश के बारे में विस्तृत चर्चा करेंगे।

जाते जाते एक बात कहना यह भी चाह रहा हूं कि आज कल हम लोगों का खान-पान भी तो बहुत ज़्यादा बदल गया है, हम ज़्यादा से ज़्यादा रिफाइन्ड चीज़ें खाने लगे हैं, ज़्यादा हार्ड-चीजें हम अपने खाने में शामिल करने से अकसर गुरेज़ ही करते हैं , कच्चे-खाने( सलाद, अंकुरित अनाज एवं दालों आदि) से दूर होते जा रहे हैं क्योंकि फॉस्ट-फूड को पास लाने की जल्दी में हैं तो फिर इस टुथपेस्ट और ब्रुश को भी तो अपनाना ही होगा।

वैसे अब जब इस पोस्ट को पब्लिश करने का वक्त आया है तो यही सोच रहा हूं कि इस विषय का स्कोप भी इतना विशाल है कि कैसे एक-दो पोस्टों में इस के न्याय करूं....खैर, सब कुछ आप की टिप्पणीयों पर , फीडबैक पर निर्भर है ....आप अगर इस विषय के बारे में और कुछ जानना चाहेंगे तो इस के बारे में लिखते जायेंगे। लेकिन जाते जाते एक काम की बात जो किताबों में लिखी है वह ज़रूर बतानी चाहूंगा कि ब्रुश को पेस्ट के साथ करना शायद इतना लाज़मी भी नहीं है....यह तो केवल ब्रुश की अक्सैप्टेबिलिटी बढ़ाती है। ऐसा कहा जाता है कि अगर किसी को बिना पेस्ट के दांत साफ करने को कहें तो कितने लोग करेंगे..................औरों की तो मैं नहीं जानता, मैं खुद तो नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मैं पिछले 18 सालों से इस फ्लोराइड-युक्त पेस्ट से ही दांत ब्रुश कर रहा हूं............संतुष्ट हूं और ब्रांड-लॉयल भी हूं।

Sunday, March 30, 2008

यह रहा टुथपेस्ट का कोरा सच......भाग I


अकसर ऐसे मरीज़ों से मुलाकात होती रहती है जिन्हें जब टुथपेस्ट और ब्रुश इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है तो वे झट से कह देते हैं ......“ हमें तो भई पेस्ट करना कभी पसंद नहीं आया। एक आयुर्वैदिक पाउडर से ब्रुश के साथ ब्रुश करते हैं ! दांतों की कोई तकलीफ़ नहीं !!”….

अब यह स्टेटमैंट किसी व्यक्ति द्वारा दी गई एक बेहद महत्त्वपूर्ण स्टेटमैंट है जिस का जवाब तुरंत ही एक लाइन में नहीं दिया जा सकता । इसलिये मुझे इस स्टेटमैंट के ऊपर एक पोस्ट लिखने का विचार आया है। .वैसे उस बंदे की बात अपनी जगह कितनी सही लगती है कि डाक्टर, तुम तो कहते हो टुथपेस्ट और ब्रुश....लेकिन अपने दांतो की तो भई आयुर्वैदिक पावडर और ब्रुश के ज़रिये अच्छी खासी निभ रही है, ऐसे में भला हमें क्या पड़ी है कि हम टुथपेस्ट और ब्रुश के चक्कर में पड़ें !

लेकिन इस बात की तह तक पहुंचने के लिये हमें पहले कुछ इधर-उधर की हांकनी पड़ेंगी। एक बात तो यह भी बताना चाहूंगा कि अकसर ऐसे लोगों से भी मिलना होता है जिन के मुंह का निरीक्षण करने के बाद जब हम लोग कैज़ुएली ही पूछ लेते हैं कि आप पेस्ट कौन सी इस्तेमाल करते हैं तो झट से जवाब मिलता है .....“ मैंने तो आजतक न तो ब्रुश किया है और ना ही पेस्ट का ही इस्तेमाल किया है, बस घर का बनाया मंजन ही किया होता है !”....अब हम जब आगे बढ़ेंगे तो इस बात का भी जवाब भी तो ढूंढेंगे.....केवल मरीज की कही बात को झुठलाने के लिये ही नहीं ,लेकिन केवल सच की तलाश करने के लिये।

अच्छा चलिये, कुछ बातें करें। इतने करोड़ों लोग तंबाकू का विभिन्न रूपों में सेवने करते हैं....तो क्या सब को मुंह का कैंसर, फेफड़ों का कैंसर या शरीर के किसी अन्य अंग का कैंसर हो जाता है ! या हर कोई तंबाकू से पैदा होने वाली बीमारियों की चपेट में आ जाता है। अब इस का जवाब तो एक डाक्टर को देना ही होगा ना, अब इस के जवाब से कोई भाग कर बताये। बात यही है कि सारी कायनात मानती है कि तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन घातक है, लेकिन फिर भी हम अपने आस-पास भी तो देखते हैं कि कुछ हमारे ही सगे-संबंधी-मित्र बरसों से सिगरेट पिये जा रहे हैं और साथ में ठोक कर कहते हैं कि देखो, भई, हम तो पूरी ऐश करते हैं लेकिन हमें तो कोई तकलीफ़ नहीं है। ऐसे ही लोगों की इस तरह की बातें उन के आस-पास रहने वाले वालों को भी इस ज़हर को ट्राई करने के लिये उकसाती हैं। लेकिन फिर भी अन्य लोग इन जहरीली चीज़ों का इस्तेमाल करने से नहीं ना चूकते ! ….अगले बिंदु पर जाने से पहले इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि बरसों से इस्तेमाल करने वाला बंद अपने आप ही यह घोषणा कर के खुश हो रहा है ना कि वह फिट है......क्या सेहत की यही परिभाषा है, क्या इतना कह कर खुश हो लेने से चल जायेगा ?....मुझे तो ऐसा नहीं लगता। हां, अगर कोई फिजिशियन उसे चैक करने के उपरांत यह डिक्लेयर कर दे कि हां, भई, हां, तुम एकदम फिट हो, तो बात दूसरी है !....लेकिन ऐसा हो ही नहीं सकता.....क्योंकि तंबाकू अंदर ही अंदर विभिन्न अंगों पर मार तो करता ही रहता है, हां, यह ठीक है कि उन का ऐसा विकराल रूप अभी न दिखा हो जिस की वजह से तंबाकू का सेवन करने वाले की नींद ही उड़ जाये।

अब, मुंह की ही बात लीजिये.....मेरे पास मुंह के इतने ज़्यादा मरीज़ आते हैं जिन के मुंह के अंदर तंबाकू के तरह-तरह के सेवन के परिणाम-स्वरूप अजीब तरह के छोटे-छोटे घाव नज़र आते हैं। अब हम जैसे डाक्टरों के लिये चिंताजनक बात तो यही है कि अकसर इस तरह की अवस्थाओं की मरीज़ को कोई तकलीफ़ होती नहीं है, लेकिन हमें यह भी पूरा पता है कि अगर तंबाकू का सेवन तुरंत बंद कर के इन का इलाज न किया गया तो इन में से कुछ अवस्थायें जो अभी बहुत इनोसेंट सी दिख रही हैं, वे कभी भी पल्टी मार के मुंह के कैंसर का विकराल रूप धारण कर लेंगी। इसलिये हम लोगों को तंबाकू के सेवन का जम कर विरोध करना ही पड़ता है.....यहां यह तर्क तो बिल्कुल चलता ही नहीं ना कि हर एक तंबाकू का सेवन करने वाले को ही थोड़ा मुंह का कैंसर हो जायेगा..........लेकिन समस्या यही तो है कि हमें भी नहीं पता कि कौन आगे चल कर इस की चपेट में आ जायेगा, इसलिये ऐसी वस्तु के इस्तेमाल को सिरे से ही क्यों न नकार दिया जाये। आशा है कि आप को इन बातों का औचित्य समझ में आ गया होगा।

ऊपर जो बातें की गई हैं उन से एक बात यह भी निकलती है कि किसी व्यक्ति के किसी बीमारी से ग्रस्त होने का मतलब यह भी है कि उस के शरीर में, कुछ विभिन्न कारणों की वजह से, उस बीमारी के पैदा होने की संभावना दूसरों से ज़्यादा है। अब इस बात को इस से ज़्यादा एक्सप्लेन करना इस पोस्ट के स्कोप से बाहर है.....लेकिन यह तो तय ही है ना कि दो बंदे बचपन से मुंह में तंबाकू-चूना दबा रहे हैं, लेकिन एक को मुंह का कैंसर 45 की उम्र में ही काबू कर लेता है लेकिन दूसरा 85 की उम्र में भी मेरे जैसे डाक्टरों को देखते ही झट से तंबाकू की एक और चुटकी होठों के अंदर कुछ इस अंदाज़ में दबाता है कि मानो हम लोगों की खिल्ली उड़ा रहा हो। अच्छा तो आप बतलाईए कि ऐसे में क्या हम इस 85 वर्षीय हवा में उड़ रहे नटखट बुजुर्ग का केस देख कर तंबाकू चूसने का खुला लाइसैंस दे दें ?....नहीं ना, ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता। लेकिन यह डिस्कशन तो कुछ ज़्यादा ही लंबी होती जा रही है, इसलिये अपने मूल प्रश्न पर ही वापिस आता हूं।

अच्छा तो अपनी बात हो रही थी पेस्ट इस्तेमाल करने की या ना इस्तेमाल करने की। अब ऐसे बहुत से लोग मिलते हैं जिन्होंने से कभी पेस्ट नहीं की, कोई मंजन नहीं किया, कोई दातुन नहीं की, केवल हर खाने के बाद कुल्ला ही करते हैं और वे बड़े गर्व से कहते हैं कि यही उन की बतीसी कायम रहने का राज़ है। लेकिन अकसर जब उन के मुंह का निरीक्षण किया जाता है कि तो पाया जाता है कि उन के मुंह से भयानक दुर्गंध तो आ ही रही है, इस के साथ ही वे पायरिया रोग के एडवांस स्टेज से ग्रस्त भी हैं। मैं यहां पर यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि अपनी बात को सिद्ध करने के लिये यह मेरा कोई एक्सट्रिमिस्ट ओपिनियन नहीं है.....यह हमारा दिन-प्रतिदिन का अनुभव है....और इस तरह की पोस्टों पर लिखा एक-एक शब्द पिछले पच्चीस सालों के अनुभव की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही आप तक पहुंच रहा है।

लेकिन हां, कभी कभार, बहुत रियली ऐसा भी होता है कि ऐसे कुछ बंदों में इतना ज़्यादा रोग नहीं भी दिखाई देता। और दूसरी तरफ़ एक सिचुऐशन देखिये कि कोई आदमी रोज़ाना दो बार टुथ-पेस्ट और ब्रुश से दांत भी साफ कर रहा है, जुबान भी नियमित रूप से रोज़ाना सुबह साफ करता है, लेकिन दांतों की सड़न फिर भी उस का पीछा नहीं छोड़ती......कईं बार तो ऐसे लोग फ्रस्ट्रेट हुये होते हैं। तो, यहां पर यही समझने की बात है कि मुंह की बीमारियां केवल टुथपेस्ट या ब्रुश करने या ना करने से ही नहीं होतीं...........लेकिन उन के होने अथवा ना होने में हमारी जीन्स (genes) का रोल है, हमारे मुंह के अंदर पाये जाने वाले जीवाणुओं की किस्मों का रोल है, हमारे थूक की कंपोज़ीशन का रोल है, हमारे खान-पान का, हमारी अन्य आदतों का बहुत अहम् रोल है। वैसे यह लिस्ट बहुत लंबी है, लेकिन फिर कभी इस के बारे में चर्चा करेंगे।

तो, अब मैं जिस बात पर आना चाहता हूं वह यही है कि जो लोग मंजन और ब्रुश से दांत साफ कर रहे हैं....यह उन की पर्सनल च्वाइस है। लेकिन हां, पहले किसी दंत-चिकित्सक को अपना निरीक्षण करवा कर यह ज़रूर सुनिश्चित कर लें कि सब कुछ ठीक ठाक है। और जहां तक इन तरह तरह के मंजनों का प्रश्न है, कुछ में तो बहुत ही खुरदरे तत्व मिले होते हैं। अकसर लोग हमारे पास भी तरह तरह की शीशियां लेकर आते हैं कि यह शीशी बस-अड्डे के सामने सहारनपुर से रोज़ाना आने वाले बाबे से ली थी, क्या कमाल का पावडर है...मेरे सारे परिवार का पायरिया छू-मंतर ही हो गया है। लेकिन अकसर जब इन लोगों के मुंह का चैक-अप किया जाता है तो बात कुछ और ही होती है।

ठीक है, आप तो कैमिस्ट की दुकान से सीलबंद आयुर्वैदिक पावडर का इस्तेमाल करते हैं......और अगर आप का दंत-चिकित्सक भी आप के दांतों का निरीक्षण करने के उपरांत यही कहता है कि सब कुछ एक दम फिट है तो आप भी अपनी जगह बिल्कुल ठीक हैं कि आखिर आप क्यों करें टुथपेस्ट पर स्विच-ओवर !

लेकिन इन सब बातों का पूरा जवाब भी मैं दूंगा, लेकिन इस समय पिछले डेढ़ घंटे से लगातार लिखते लिखते थक सा गया हूं और आप से इजाजत चाहूंगा......लेकिन इस पोस्ट के दूसरे हिस्से में इन पेस्टों और पावडरों( आयुर्वैदिक पावडरों समेत) की खुल कर बात करूंगा.....पेस्ट अथवा पावडर कैसा हो, कितना इस्तेमाल किया जाये।

जो भी हो, मैं अपनी पिछली पोस्ट पर आई एक टिप्पणी का तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूं जिस की वजह से मुझे यह पोस्ट लिखने पर बाध्य होना पड़ा। इस पोस्ट को मैं बहुत ही महत्त्वपूर्ण मानता हूं ...इसलिये मैंने इसे सुबह-सवेरे फ्रैश रहते हुये लिखने का फैसला किया। इसलिये कहता हूं कि कुछ टिप्पणी हमें झकझोरती हैं कि हां, अब ढूंढ इस बात का जवाब....शायद हम ने भी कभी इतनी गंभीरता से इन महत्त्वपूर्ण बातों के बारे में इतनी गंभीरता से पहले कभी सोचा ही नहीं होता क्योंकि हम अकसर यही सोच कर खुश होते रहते हैं कि एक प्रोफैशनल के नाते हम कह रहे हैं वही पत्थर पर लकीर है.......लेकिन बात तर्क की है, वितर्क की है, विज्ञान की है, तो ऐसे में हमारी एक एक बात इस कसौटी पर खरी तो उतरनी ही चाहिये।

मेरे एक दोस्त ने बिल्कुल सही कहा था कि इस तरह की ब्लोग की दिशा-दशा तो समय ही निर्धारित करता है। अच्छा तो जल्द ही इसी शीर्षक वाली पोस्ट के दूसरे भाग के साथ हाज़िर होता हूं।

अच्छा तो दोस्तो इतनी सीरियस सी और बोरिंग पोस्ट झेलने के बाद मेरी पसंद का एक गीत ही सुन लो !

Saturday, March 29, 2008

मसूड़ों से खून निकलना.....कुछ महत्त्वपूर्ण बातें...

मसूड़ों से खून निकलना एक बहुत ही आम समस्या है, लेकिन अधिकांश लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते। हां, अकसर लोग इतना ज़रूर कर लेते हैं कि अगर ब्रुश करने समय मसूड़ों से खून निकलता है तो ब्रुश का इस्तेमाल करना छोड़ देते हैं और अंगुली से दांत साफ करना शुरू कर देते हैं। यह बिल्कुल गलत है – ऐसा करने से पायरिया रोग बढ़ जाता है। कुछ लोग किसी मित्र-सहयोगी की सलाह को मानते हुये कोई भी खुरदरा मंजन दांतों पर घिसने लगते हैं , कुछ तो तंबाकू वाली पेस्ट को ही दांतों-मसूड़ों पर घिसना शुरू कर देते हैं। यह सब करने से हम मुंह के गंभीर रोगों को बढ़ावा देते हैं।

जब भी किसी को मसूड़ों से रक्त आने की समस्या हो तो उसे प्रशिक्षित दंत-चिकित्सक से मिलना चाहिये। वहीं आप की समस्या के कारणों का पता चल सकता है। बहुत से लोग तो तरह तरह की अटकलों एवं भ्रांतियों की वजह से अपना समय बर्बाद कर देते हैं...इसलिये अगर किसी को भी यह मसूड़ों से खून निकलने की समस्या है तो उसे तुरंत ही अपने दंत-चिकित्सक से मिलना चाहिये।

मसूड़ों से खून निकलने का सबसे आम कारण दांतों की सफाई ठीक तरह से ना होना है जिसकी वजह से दांत पर पत्थर( टारटर) जम जाता है। इस की वजह से मसूड़ों में सूजन आ जाती है और वें बिल्कुल लाल रंग अख्तियार कर लेते हैं। इन सूजे हुये मसूड़ों को ब्रुश करने से अथवा हाथ से छूने मात्र से ही खून आने लगता है। जितनी जल्दी इस अवस्था का उपचार करवाया जाये, मसूड़ों का पूर्ण स्वास्थ्य वापिस लौटने की उतनी ही ज़्यादा संभावना रहती है। इस का मतलब यह भी कदापि नहीं है कि अगर आप को यह समस्या कुछ सालों से परेशान कर रही है तो आप यही सोचने लगें कि अब इलाज करवाने से क्या लाभ, अब तो मसूड़ों का पूरा विनाश हो ही चुका होगा। लेकिन ठीक उस मशहूर कहावत....जब जागें, तभी सवेरा....के मुताबिक आप भी शीघ्र ही अपने दंत-चिकित्सक को से दिखवा के यह पता लगवा सकते हैं कि आप के मसूड़े किस अवस्था में हैं और इन को बद से बदतर होने से आखिर कैसे बचाया जा सकता है।

कुछ लोग तो इस अवस्था के लिये अपने आप ही दवाईयों से युक्त कईं प्रकार की पेस्टें लगाना शुरू कर देते हैं अथवा महंगे-महंगे माउथ-वॉशों का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं। लेकिन इस तरह के उपायों से आप को स्थायी लाभ तो कभी भी नहीं मिल सकता .....शायद कुछ समय के लिये ये सब आप के लक्षणों को मात्र छिपा दें।


मसूड़ों की बीमारियों से बचने का सुपर-हिट अचूक फार्मूला तो बस यही है कि आप सुबह और रात दोनों समय पेस्ट एवं ब्रुश से दांतों की सफाई करें, जुबान साफ करने वाली पत्ती ( टंग-क्लीनर) से रोज़ाना जुबान साफ करें और हर खाने के बाद कुल्ला अवश्य कीजिये। इस के साथ साथ तंबाकू के सभी रूपों, गुटखों एवं पान-मसालों से कोसों दूर रहें।

अकसर लोग अपनी छाती ठोक कर यह कहते भी दिख जाते हैं हम तो भई केवल दातुन से ही दांत कूचते हैं...यही राज़ है कि ज़िंदगी के अस्सी वसंत देखने के बाद भी बत्तीसी कायम है। यहां पर मैं भी उतनी ही बेबाकी से यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि बात केवल मुंह में बत्तीसी कायम रखने तक ही तो सीमित नहीं है, बल्कि उस बत्तीसी का स्वस्थ रहना भी ज़रूरी है।

अकसर मैंने अपनी क्लीनिकल प्रैक्टिस में नोटिस किया है कि जो लोग केवल दातुन का ही इस्तेमाल करते हैं, उन में से भी काफी प्रतिशत ऐसे भी होते हैं जिन के मसूड़ों में सूजन होती है। लेकिन इस का दोष हम दातुन पर कदापि नहीं थोप सकते !....यह क्या ?...आप किस गहरी सोच में पढ़ गये हैं !...सीधी सी बात है कि अगर आप कईं सालों से दातुन का ही इस्तेमाल कर रहे हैं और आप को दांतों से कोई परेशानी नहीं है तो भी आप अपने दंत-चिकित्सक से नियमित चैक-अप करवाइये। अगर वह आप के मुंह का चैक-अप करने के पश्चात् यह कहता है कि आप के दांत एवं मसूड़े बिल्कुल स्वस्थ हैं तो ठीक है ....आप केवल दातुन का ही प्रयोग जारी रखिये। लेकिन अगर उसे कुछ दंत-रोग दिखते हैं तो आप को दातुन के साथ-साथ ब्रुश-पेस्ट का इस्तेमाल करना ही होगा।

एक विशेष बात यह भी है कि अकसर लोग दातुन का सही इस्तेमाल करते भी नहीं—वे दातुन को चबाने के पश्चात् दांतों एवं मसूड़ों पर कुछ इस तरह से रगड़ते हैं कि मानो बूट पालिश किये जा रहे हों...ऐसा करने से दांतों की संरचना को नुकसान पहुंचता है। आप चाहे दातुन ही करते हैं, लेकिन इस को भी दंत-चिकित्सक की सलाह अनुसार ब्रुश की तरह ही इस्तेमाल कीजिये।

हमारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब.....हमारा मुंह....I……परिचय

अभी कुछ ही समय पहले मैंने एक सीरिज़ शुरू की है...मुंह के ये घाव/छाले, लेकिन मुझे विचार आया है कि इस के भी अतिरिक्त एक सीरिज़ अलग से शुरू की जाये जिस में हमारे मुंह के बारे में पूरी जानकारी दी जाये क्योंकि मैंने देखा है कि हिंदी में इस जानकारी का बहुत अभाव है।

मुझे यह लिखने की प्रेरणा पता है कैसे मिली.......अकसर घर में फेशियल के बारे में बातें होती रहती हैं( थैंक गॉड, करवाता कोई नहीं है!) और कुछ समय पहले मैंने एक ऐसे ही फेशियल का रेट सुन कर हैरान हो गया...तीन सौ रूपये !.....इस के रेट के बारे में सुन कर मेरे मुंह से अनायास निकला कि तीन सौ रूपये में तो शायद तीन दिन ( ज़्यादा नहीं कह दिया, तीन घंटे ठीक रहेंगे).....चेहरा चमक जाये लेकिन अगर इसी पैसे का महीने तक ताज़ा फलों का रस पी लिया जाये या ताज़े फलों का ही सेवन कर लिया जाये तो शायद परमानैंट फेशियल ही हो जाये। अब दूर-दराड़ के गांव में कहां ये औरतें इन चक्करों में पड़ती हैं लेकिन इन के चेहरे की आभा देखते बनती है। तो मैसेज क्लियर है.............जस्ट बी नैचुरल !!

ताज़ा फलों की बात की है तो मुझे कुछ दिन पहले अपनी एक महिला मरीज़ से की बात याद आ गई। मैंने उस अधेड़ औरत से यूं ही पूछ लिया कि आप की तबीयत ठीक नहीं लग रही। तब, उस ने मुझे बतलाना शुरू किया कि क्या करें, खाते तो सब कुछ हैं.....अपने पति का नाम लेकर कहने लगी कि अब ये कुछ दिन पहले ही मौसंबी की एक बोरी (शायद पांच सौ रूपये के आस-पास की कीमत में, जैसे कि उस ने मुझे बतलाया).. ही मंडी से उठा लाये हैं, कि अब तू इन का रस निकाल निकाल के खूब पिया कर। ......

मुझे उस महिला की बात सुन कर थोड़ा सुकून तो ज़रूर मिला कि चलो इस केस में पैसे के खर्च करने के लिये च्वाइस तो बेहतर की गई है। लेकिन केवल इस मौसंबी की बोरी पर ही अपनी सारी सेहत का जिम्मा डाल कर निश्चिंत हो जाना क्या ठीक है। ऐसा इसलिये कह रहा हूं कि उस महिला का सामान्य स्वास्थ्य भी कुछ ज़्यादा ठीक न था।

अच्छा ऊपर की गई बातों से आप कहीं यह तो अंदाज़ा नहीं लगाने लग गये कि इस सीरिज़ में मैं मुंह अर्थात् चेहरे तक ही अपनी बात सीमित रखूंगा। ठीक है, कभी कभार यह चेहरा-मोहरा भी कवर हो जाया करेगा। लेकिन मेरी यह सीरिज़ बेसिकली होगी.....मुंह के बारे में.....मुंह अर्थात् दांतों के बारे में, होठों, गालों के अंदरूनी हिस्सों, मसूड़ों, जिह्वा, गले का वह हिस्सा जो सामने नज़र आता है, तालू के बारे में ...............इन सब के बारे में जम कर चर्चा होगी कि ये स्वास्थ्य में कैसे दिखेंगे और बीमारियां किस तरह से इन्हें प्रभावित करती हैं। उम्मीद तो पूरी है कि कुछ भी न छूटने पायेगा (बस जो कुछ पिछले पच्चीस सालों में किया है, देखा है, सीखा है, पढ़ा है....सब कुछ बिलकुल फ्रैंक तरीके से आप के सामने रखने की चाह रखता हूं !)…, आज मैंने इस सीरिज़ को शुरू करने का पंगा तो ले लिया है, लेकिन मुझे स्वयं भी नहीं पता कि यह सीरिज़ क्या दिशा लेगी और यह कितनी लंबी खिंचेगी............यह सब आप की टिप्पणीयों, आप के प्रश्नों, आप की उत्सुकता, आप की ई-मेलज़ पर निर्भर करेगा।

जाते जाते इस पहली पोस्ट में एक बात फिर से दोहरा रहा हूं कि मैडीकल विज्ञान में हम अकसर यह कहते रहते हैं कि Oral cavity is the index of whole of the human body….अर्थात् हमारा मुंह हमारे स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है। यह बहुत ही, बहुत ही महत्वपूर्ण स्टेटमैंट है...क्योंकि ऐसी कितनी ही बीमारियां हैं जिन के बारे में हम धीरे धारे जानेंगे जिन का शक हमें किसी व्यक्ति के मुंह के अंदर झांकने मात्र से ही हो जाता है और दूसरी तरफ़ यह भी है कि कितनी ही ऐसी मुंह की तकलीफ़ें हैं जिन के बुरे प्रणाम शरीर के दूसरे सिस्ट्म्ज़ पर हम देखते रहते हैं। यह सब हम चलते चलते देखते जायेंगे।

बतलाईयेगा कि आप को यह सीरिज़ शुरू करने का आईडिया कैसा लगा।

Friday, March 28, 2008

मुंह के ये घाव/छाले......III.......कैसे होंगे ये ठीक ?

स्वाभाविक प्रश्न है कि जब मुंह में ये छाले हो ही जायें, तो इन का इलाज कैसे किया जाये। इन के इलाज के लिये जो बात समझनी सब से महत्त्वपूर्ण है वह यही है कि इन छालों को ठीक करना किसी डाक्टर के वश की बात तो है नहीं....क्योंकि अन्य बीमारियों की तरह प्रकृति ही इन से निजात दिलाने में हमारी मदद करती है। हम ने तो सिर्फ़ मुंह में एक ऐसा वातावरण मुहैया करवाना है जो कि इन छालों को शीघ्रअतिशीघ्र ठीक होने में (हीलिंग) मदद करे।

सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जब हम लोग मुंह के इन छालों से परेशान हों तो हमें अपना खान-पान बिल्कुल बलैंड सा रखना होगा.....बलैंड से मतलब है बिल्कुल मिर्च-मसालों से रहित। मैं अपने मरीज़ों को ऐसे खान-पान के लिये प्रेरित यह कह कर करता हूं कि अगर हमारे चमड़ी पर कोई घाव है तो उस पर नमक लग जाये तो क्या होता है, ठीक उसी प्रकार ही मुंह में छाले होने पर भी अगर मिर्च-मसाले वाला खाना खाया जायेगा तो कैसे होगी फॉस्ट हीलिंग ?

और , दूसरी बात यह है कि मुंह के इन छालों पर कोई भी दर्द-निवारक ऐंसीसैप्टिक ड्राप्स लगा देने चाहियें......ऐसे ड्राप्स अथवा अब तो इन्हीं नाम से ट्यूब रूप में भी दवायें आने लगी हैं....कुछ के नाम मैं लिख रहा हूं.......Dentogel, Dologel, Zytee, Emergel, Gelora ORAL ANALGESIC / ANTISEPTIC GEL…….ये पांच नाम हैं जिन को कि मैं हज़ारों मरीज़ों के ऊपर इस्तेमाल कर चुका हूं। ( Please note that there is no commercial interest of mine involved in telling you all this…….you may find and use anyone which you feel is more suitable…. as long as it serves your purpose. Just telling you this because I an very much against all such endorsements !) …….नोट करें कि इन का भी काम मुंह के छाले को भरना नहीं है....ये केवल आप को उस छाले से दर्द से कुछ समय के लिये राहत दिला देती हैं। इन पांचों में से आप किसी भी एक दवाई को लेकर दिन में दो-चार बार छालों पर लगा सकते हैं। वैसे विशेष रूप से खाना खाने से पांच मिनट पहले तो इस दवाई का प्रयोग ज़रूर कर लें। और हां, दो-चार मिनट के बाद थूक दें। लेकिन बाई-चांस अगर कभी कभार गलती से एक-आध ड्राप निगल भी ली जाये तो इतना टेंशन लेने की कोई बात नहीं होती।

अब आते हैं इन मुंह के छालों के इलाज के लिये उपयोग होने वाली एंटीबायोटिक दवाईयों पर। वास्तव में ये मुंह के छाले वाला टापिक इतना विशाल है कि स्ट्रेट-फारवर्ड तरीके से सीधा कह देना कि एंटीबायोटिक दवाईयां लेनी हैं कि नहीं ....कुछ कठिन सा ही काम है। जैसे जैसे मैं इस सीरिज़ में आगे बढूंगा तो हम देख कर हैरान रह जायेंगे कि इन मुंह के छालों की भी इतनी श्रेणीयां हैं और इन का इलाज भी इतना अलग अलग किस्म का। अभी तो मैं केवल बात कर रहा हूं उन छालों को जो लोगों को यूं ही कभी कभी परेशान करते रहते हैं....इन में किसी एंटीबायोटिक दवाईयों का कोई स्थान नहीं है। लेकिन अगर इन छालों की वजह से थूक निगलने में दिक्कत होने लगे या जबाड़े के नीचे गोटियां सी आ जायें( Lymphadenitis……lymph nodes का बढ़ जाना और दर्द करना) ...तो एंटीबायोटिक दवाईयां 3-4दिनों के लिये लेनी पड़ सकती हैं।

और आप कोई दर्दनिवारक टीकिया भी अपनी आवश्यकतानुसार ले सकते हैं।

कईं प्रैस्क्रिप्श्नज़ देखता हूं जिन में मैट्रोनिडाज़ोल की गोलियों का कोर्स करने की सलाह दी गई होती है। मेरे विचार में इन गोलियों को इन मुंह के छालों के लिये नहीं लेना चाहिये।

मल्टी-विटामिन टैबलेट लोग अकसर गटकनी शुरू कर देते हैं.....ठीक हैं, अगर किसी को इस से सैटीस्फैक्शन मिलती है तो बहुत अच्छा है। लेकिन मेरा तो दृढ़ विश्वास यही है कि अगर विटामिन सी की जगह कोई मौसंबी, कीनू, संतरे का जूस पी लिया जाये, य़ा तो नींबू-पानी ही पी लिया जाये या आंवले का किसी भी रूप में सेवन कर लिया जाये तो वो शायद सैंकड़ो गुणा बेहतर होगा। एक बात और कहना चाहूंगा कि जब मेरे पास ऐसे मरीज़ आते हैं तो मैं तो इस मौके को उन की खान-पान की आदतें बदलने के लिये खूब इस्तेमाल करता हूं। जैसे कि किसी को अगर आप ने अंकुरित दालें खाने के लिये प्रेरित करना हो तो इस से बेहतर और क्या मौका हो सकता है। शायद जब वे ठीक ठाक हों तो आप की इस सलाह को हंस कर टाल दें....लेकिन जब वे मुंह के छालों से परेशान हैं तो वे कुछ भी करने को तैयार होते हैं। ऐसे में उन को इस तरह की प्राकृतिक खाद्य पदार्थों के इस्तेमाल के लिये प्रेरित करना और संतुलित आहार लेने की बातें वे खुशी खुशी पचा लेते हैं। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात तो बतानी पिछली पोस्ट में भूल ही गया था कि ये जो अंकुरित दालें हैं ना ये विटामिनों से पूरी तरह से विशेषकर बी-कंप्लैक्स विटामिनों से भरपूर होते हैं। इसलिये इन्हें Power Dynamos भी कहा जाता है।

मुझे ख्याल आ रहा है कि मैंने पिछली पोस्ट में एक होस्टल में रह रहे 20-22 के लड़के की बात की थी......लेकिन बात वही है कि होस्टल में तो कुछ भी हो, हमें मैदे जैसे आटे की ही रोटियां मिलने वाली हैं। तो , ऐसे में उस लड़के को यह भी ज़रूर चाहिये कि वह खुद सलाद बना कर खाया करे,अपने रूम में ही अंकुरित दाल तैयार किया करे ( आज कल तो रिलांयस ग्रीन के स्टोर पर भी ये अंकुरित दालें मिलने लगी हैं) और हां, दो-तीन मौसमी रेशेदार फल ज़रूर ज़रूर खाया करें। इस से कब्ज की भी शिकायत न होगी और संतुलित आहार मिलने से मुंह की चमड़ी भी हृष्ट-पुष्ट हो जायेगी जिस से कि उस में छाले बनने की फ्रिकवैंसी धीरे धीरे कम हो जायेगी। सीधी सी बात है कि यहां भी काम हमारी इम्यूनिटी ही कर रही है....अगर अच्छी है तो हम इन छोटी मोटी परेशानियों से बचे रहते हैं।

अगली बात यह है कि मुंह में चाहे छाले हों, लेकिन धीरे धीरे हमें अपने दांतों को रोज़ाना दो बार ब्रुश तो अवश्य करना ही चाहिये। थोड़ा बच कर कर लें ताकि किसी छाले को न ज्यादा छेड़ दें। लेकिन इस के साथ ही साथ जुबान को रोज़ाना साफ करना निहायत ही ज़रूरी है....क्योंकि हमारी जुबान की कोटिंग पर अरबों-खरबों जीवाणु डेरा जमाये रहते हैं जिन से रोज़ाना निजात पानी बहुत आवश्यक है....नहीं तो ये दुर्गंध तो पैदा करते ही हैं और साथ ही साथ इन छालों को भी जल्दी ठीक नहीं होने देते। इन मुंह के छालों के होते हुये भी मैं जुबान की सफाई की सिफारिश इसलिये भी कर रहा हूं कि अकसर ये घाव/छाले जुबान की ऊपरी सतह पर नहीं होते हैं। लेकिन अगर कभी इस सतह पर भी छाले हैं तो आप दो-तीन दिन इस टंग-क्लीनर को इस्तेमाल न करियेगा।

अब बात आती है......बीटाडीन से कुल्ले करने की। अगर आप छालों की वजह से ज़्यादा ही परेशान हैं तो Betadine ….Mouth gargle से दिन में दो-बार कुल्ले कर लेने बहुत लाभदायक हैं........हमेशा के लिये नहीं............केवल उन एक दो –दिन दिनों के लिये ही जिन दिनों आप इन छालों से परेशान हैं। लेकिन रात के समय सोने से पहले इन छालों वालों दो-चार दिनों में इस बीटाडीन गार्गल से कुल्ला कर लेने बहुत लाभदायक है। यह भी आप की आवश्यकता के ऊपर निर्भर करता है...मेरे बहुत से मरीज़ फिटकरी वाले गुनगुने पानी से ही कुल्ले कर के खुश रहते हैं तो मैं भी उन की खुशी में खुश हो लेता हूं.....।

अब जाते जाते एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह है कि बहुत से लोग कुछ कुछ देसी तरह की चीज़े जैसे हल्दी , मलाई, ग्लैसरीन इन छालों के ऊपर लगाते रहते हैं....उन्हें इन से आराम मिलता है ....बहुत बढिया बात है....आयुर्वेद में और भी तो बहुत सी चीज़ें हैं जो हम लोगों को इन छालों के ऊपर लगाने के लिये अपने रसोई-घर से ही मिल जाती हैं , इन का भरपूर इस्तेमाल किया जाना चाहिये। ये दादी के नुस्खे नहीं हैं.....दादी की लक्कड़दादी भी ज़रूर इन्हें ही इस्तेमाल करती थी। लेकिन बस एक चीज़ से हमेशा बचें........कभी भूल कर भी एसप्रिन की गोली पीस कर मुंह में न रख लें.........भयंकर परिणाम हो जायेंगे......छालों से राहत तो दूर, मुंह की सारी चमड़ी जल जायेगी।

So, take care !! पोस्ट लंबी है लेकिन निचोड़ यही है कि इन छालों की इतनी टेंशन न लिया करें। और जितने भी प्रश्न हों, खुल कर टिप्पणी में लिख दें या ई-मेल करें....एक-दो दिन में जवाब आप के पास अगली पोस्ट के रूप में पहुंच जायेगा। बस, अपने खान-पान का ध्यान रखा करें और तंबाकू-गुटखा-पानमसाला के पाऊच बाहर किसी गटर में आज ही फैंक दें।

Tuesday, March 25, 2008

मुंह के ये छाले..........भाग..I


मुझे अभी बैठे बैठे ध्यान आ रहा है कि पूरे पच्चीस वर्ष हो गये हैं मुंह के छाले के मरीज़ों को देखते हुये। लगता है कि अब समय आ ही गया है कि मैं इस विषय पर एक सीरिज़ लिख ही डालूं....अपने सारे अनुभव इक्ट्ठे कर के एक ही जगह डाल दूं.....बिल्कुल सीधी सादी भाषा में जिस में कोई इंगलिश में टैक्नीकल शब्दों का प्रयोग ना किया गया हो और अगर किया भी गया हो तो उन्हें पुरी तरह से समझाया जाये।


मेरे इस विचार का कारण यही है कि इस तरह के मुंह के छाले के इतने मरीज़ मेरे पास आते हैं और वे इतने भयभीत होते हैं कि मैं बता नहीं सकता । शायद यहां-वहां सुनते रहते हैं ना कि 15दिन के अंदर अगर मुंह के अंदर कोई घाव है, छाला है तो वह कैंसर हो सकता है। लेकिन अकसर जब उन को पता चलता है कि उन के केस में ऐसी चिंता करने की कोई बात ही नहीं है तो उन्हें बेहद सुकून मिलता है।


एक बात मैं यहां पर रेखांकित करना चाहता हूं कि जैसे हम कहते हैं ना कि चेहरा हमारे मन का आइना है , ठीक उसी प्रकार ही हमारा मुंह ( oral cavity)..हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का प्रतिबिंब है ...कहने का भाव यही है कि हमारा स्वास्थ्य हमारे मुंह में प्रतिबिंबित होता है। तो, ठीक है मैं तैयार हूं अपना सारा अनुभव आप के साथ बांटने के लिये..............मैं यही प्रयत्न करूंगा कि इस सीरिज़ के दौरान किसी भी पहलू को अनछूया न रखूं।


इस पोस्ट के माध्यम से तो मैं आप सब से यही पूछना चाह रहा हूं कि आप को मेरा यह ख्याल कैसा लगा है.....बेहतर होगा अगर आप अपने विचारों से मेरे को अवगत करवायेंगे। अगर कुछ भी विशेष इस सीरिज़ में आप चाहते हैं कि कवर किया जाये तो आप मुझे इस विषय पर भविष्य में लिखी जाने वाली मेरी विभिन्न पोस्टों पर कह सकते हैं या मुझे कृपया ई-मेल कर सकते हैं.........मैं बिना आप का नाम लिये हुये आप के द्वारा उठाये गये प्रश्नों का उत्तर देने का पूरा प्रयास करूंगा।


वैसे अगर आप लिखेंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी, प्रोत्साहन मिलेगा.....और मुझे इस विषय पर लिखने के लिये एक दिशा मिलेगी। वैसे बात ऐसी भी है कि अगर आप न भी लिखेंगे तो भी मैं अपने अनुभव इस सीरिज़ में शत-प्रतिशत इमानदारी से बांटता जाऊंगा क्योंकि मेरा काम ही यही है।

चाहे इस समय मेरे पास कोई खास अजैंडा नहीं है, लेकिन देखते हैं कि जब पिछले पच्चीस सालों के अनुभवों के सागर में गोते लगाने शुरू करूंगा तो क्या क्या निकलेगा...................और हां, मैं जहां भी ज़रूरत होगी विभिन्न प्रकार के मुंह के घावों की तस्वीरें भी आप को दिखाता रहूंगा। यह सब इसलिये करना चाहता हूं कि लोगों में इस स्थिति के बारे में बहुत से भ्रम तो हैं ही, भय-खौफ़ भी है और परेशानी तो है ही...और इसी चक्कर में वे कईं तरह की छालों पर लगाने वाली दवाईयां अपने आप ही खरीद कर लगानी शुरू कर देते हैं जो सर्वथा अनुचित है ।


बाकी बातें अगली पोस्ट में करेंगे।

Sunday, March 23, 2008

दूध-दही की नदियां............लेकिन कहां हैं ये ?

जैसे ही गर्मी थोड़ी बढ़ने लगेगी हमारे दूध वाले (जिस घर से जाकर हम ताज़ा दूध लाते हैं)...कहने लग जाते हैं कि पशुओं ने दूध सुखा दिया है, इसलिये अब कुछ महीनों तक आधा किलो या एक किलो दूध कम ही मिलेगा। यह आज की बात नहीं है, बचपन से ही देख रहा हूं। चलिये, सब से पहले अपने दूध लाने वाले दिनों की ही यादें थोड़ी ताज़ी कर लें।

सब से पहले तो हम लोगों को कभी भी उन दूध वालों के दूध पर कभी भरोसा हुया ही नहीं कि जो घर-घर साईकिल पर या मोटर-साईकिल पर दूध पहुंचाने जाते हैं। हो सकता है कि आप के विचार इस के बारे में बिलकुल अलग हों ,लेकिन मेरे विचार तो भई इस मामले में बहुत रिजीड़ से हैं .....शायद बचपन से ही किसी ने किसी परिवार के सदस्य को ही इस दूध को ढोते देख-देख कर ऐसी धारणा बन चुकी है। और बचपन के दिन याद हैं कि छठी-सातवीं कक्षा में जैसे ही साईकिल चलाना आया, तो दूध लाने के बहाने साईकिल पर घूम कर आने में बहुत मज़ा आता था। लेकिन छोटी छोटी अंगुलियां कभी कभी दूध के उस एल्यूमीनियम के या पीतल के भारी से ढोल को उठा कर थोड़ा थोड़ा दर्द भी करना शुरू कर देती थीं, लेकिन तब इस तरह की छोटी-मोटी बातों की भला किसे परवाह थी। खैर, बहुत मौके आये कि काफी लोगों ने जब ऑफर किया कि डाक्टर साहब, दूध आप के यहां घर ही पहुंच दिया करेंगे ना......लेकिन कभी भी मन माना नहीं ................हर बार यही लगा कि यार, इसे क्या इंटरैस्ट हो सकता है कि यह शत-प्रतिशत खालिस दूध ही मेरे यहां पहुंचायेगा। जब लोग आप की आंखों के सामने सब तरह की हेराफेरी कर रहे हैं तो ऐसे में इतनी ज़्यादा ईमानदारी की उपेक्षा करना भी कहां मुनासिब है।

खैर, जहां जहां से भी दूध लिया...........इतने विविध अनुभव रहे कि इस पर एक अच्छा खासा छोटा मोटा नावल लिख सकता हूं लेकिन अब किस किस बात पर ग्रंथ रचूं.........ब्रीफ़ में ही थोड़ा सा बतला रहा हूं कि कभी यह कहा जाता कि आज तो आप दूध दोहने के टाइम से पहले ही आ गये ...इसलिये जानबूझ कर आधा घंटा खड़ा रखा जाता....और अगले दिन जब लेट पहुंचा जाता तो पहले से ही निकला दूध यह कह कर थमा दिया जाता कि आज तो आप लेट हो गये, हमारे बछड़े को भूख लगी थी इसलिये हमें पहले ही निकालना पड़ा। अब पता नहीं असलियत क्या थी....बछड़े की भूख या कुछ और !!.....और भी बहुत सी बातें तो याद आ रही हैं लेकिन उन के चक्कर में पड़ गया तो केंद्र बिंदु से ही कहीं न हट जाऊं।

खैर, एक तरफ तो यह बात है कि गर्मी आते ही दूध की कमी की दुहाई दी जाने लगती है, लेकिन कईं वर्षों से मेरे मन में कुछ विचार रोज़ाना कईं कईं बार दस्तक देने के बाद ...हार कर, थक टूट कर लौट जाते हैं.................ऐसे ही कुछ विचारों से आप का तारूफ़ करवाना चाह रहा हूं.......

- बाज़ारों में इतना दूध हर समय कैसे बिकता रहता है ?
- इतनी शादियों, पार्टियों में इतना दूध लगता है , यह कहां से आता है?
- इतना ज़्यादा पनीर बाज़ार में बिकता है, इतनी बर्फी बिकती है, इतना मावा बिकता है, इतनी दही बिकती है ..........सोच कर सिर दुःखता है कि यह सब कहां से आता है?
- कुछ शहरों में जगह जगह सिक्का डालने पर मशीन से दूध बाहर आ जाने का भी प्रावधान है, यह दूध कैसा दूध हैर ?
- बम्बई में जहां हम रहते थे ....बम्बई सैंट्रल एरिया .....में, तो पास ही में एक बहुत बड़ी दूध की दुकान थी जिस में एक दूध का टैंकर बहुत बड़ी पाइप से दुकान के अंदर रखी एक बहुत बड़ी स्टील की टैंकी को भरने रोज़ाना आता था. यह क्या है ?...........क्या यह शुद्ध दूध है ?
- मिलावटी दूध की मीडिया में इतनी बात होती है लेकिन फिर भी डेयरी विशेषज्ञ लोगों को केवल इतना ही क्यों नहीं बता देते कि देखो, इस सिम्पल टैस्ट से आप यह पता लगा सकते हैं कि आप के यहां आने वाला दूध असली है या मिलावटी है......इस में कितना पानी मिला हुया है........ओहो, मैं भी पता नहीं किस सतयुग की बातें उधेड़ने लग जाता हूं.....अब कहां यह मुद्दा रहा है कि दूध में पानी कितना मिला हुया है और न ही अब यह मुद्दा ही रहा है कि जिस पानी से मिलावट की गई है ....वह स्वच्छ है भी या नहीं ......यह सब गुज़रे ज़माने की घिसी-पिसी बातें हैं.....अब तो बस यही फिक्र सताती है कि इस में यूरिया तो नहीं है, साबुन तो नहीं है.................लेकिन यह चिंता भी कभी कभी ही सताती है क्योंकि ज़्यादा समय तो हमें वो सास-बहू वाले सीरियल्स की , पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री के नामांकन की, या किसी विवाहित फिल्मी हीरो के अपनी को छोड़ कर किसी दूसरी अनमैरिड के साथ इश्क लड़ाने की चिंता सताती रहती है...............हमारा अजैंडा भी तो अच्छा खासा बदल गया है।

- ये जो बाज़ार में तरह तरह के पैकेटों में भी दूध बिकता है उस की भी शुद्धता की आखिर क्या गारंटी है ?....उन की मिलावट के बारे में भी आये दिन सुनते ही रहते हैं ।
- मैंने स्वयं अपनी आंखों से कुछ अरसा पहले देखा कि एक सवारी गाड़ी में सुबह के समय कुछ लड़के लोग अपनी अपनी दूध की कैनीयों में बाथरूम से पानी निकाल निकाल कर उस में उंडेल रहे थे। ये वही लोग हैं जिन के बारे में हम जैसे शहरी लोग यही सोच कर खुशफहमी पालते रहते हैं कि यार, हमारा दूध तो गांव से आता है। लेकिन मेरी उन नौजवानों को रोकने की हिम्मत थी नहीं.......और न ही कभी मैं यह हिमाकत करूंगा..............क्योंकि मैं भी खबरों में पढ़ता रहता हूं कि आज कल चलती गाड़ी में से किसी को फैंकने की वारदातें हो रही हैं।

आज तो इस पोस्ट के माध्यम से मैंने एक अच्छे मास्टर की तरह आप के मन में तरह तरह के प्रश्न डालने का काम किया है क्योंकि मैं समझता हूं कि एक अच्छा मास्टर अपने शागिर्दों के मन में विषय के प्रति उत्सुकता जगाने का काम ज़्यादा करता है.....सो, मैंने भी एक तुच्छ सा प्रयास किया है ।

यानि कि सब गोलमाल है भई सब गोलमाल है.................ईमानदारी से बतला दूं तो मुझे तो इस चक्रव्यूह से निकलने का कोई समाधान दिख नहीं रहा ।इसीलिये आप के सामने यह मुद्दा रख रहा हूं। कुछ दिन पहले मैं एक आर्थोपैडिक सर्जन का इंटरव्यू कर रहा था...जब दूध के कैल्शियम के सर्वोत्तम स्रोत होने की बात चली तो मैंने यह कहा कि बाज़ारों में तो इतना मिलावटी, सिंथैटिक किस्म का दूध बिक रहा है तो ऐसे में आम बंदे को आप का क्या संदेश है...................उस ने तपाक से उत्तर दिया कि मेरी तो लोगों को यही सलाह है कि दूध अच्छी क्वालिटी का ही खरीदा करें,...चाहे उस के लिये उन्हें कुछ ज़्यादा ही खर्च करना पड़े।

मैं उस का यह जवाब सोच कर यही मंगल-कामना करने लगा कि काश ! यह सब कुछ इतना आसान भी होता !!

वैसे जाते जाते एक विचार तो यह भी आ रहा है कि शहरों में अब गायें दिखती ही कहां हैं................नहीं ,नहीं , दिखती तो हैं ....जो तिरस्कृत कर दी जाती हैं और वे जगह जगह पर पालीथिनों के अंबारों पर तब तक मुंह मारती रहती हैं जब तक उन की जान ही नहीं निकल जाती या फिर बंबई के फुटपाथों पर भी अकसर एक गाय दिख जाती है जिस के पास बैठी औरत का पेट यह गाय पालती है......वह राहगीरों को एक-दो रूपये में चारे की एक दो शाखायें देती हैं जिसे वह उसी की गाय को खिला कर अपने पापों की गठड़ी को थोड़ा हल्का करने की खुश-फहमी पालते हुये आगे दलाल-स्ट्रीट की तरफ़......नहीं तो कमाठीपुरे जाने वाली पतली गली पकड़ लेता है।

और रही देश में दूध दही की नदियां बहने वाली बातें, वे तो शायद मनोज कुमार की किसी पुरानी फिल्म में दिखे तो दिखे........................वैसे, छोड़ो आप भी किन चक्करों में पड़ना चाह रहे हो, यह गीत सुनो और इत्मीनान से इंतज़ार करो अपने दूधवाले का , वह भी आता ही होगा !!

Saturday, March 22, 2008

आज विश्व जल दिवस है..............अ..च्..छा..........तो ?

इस दिन अखबारों में इस के बारे में खूब चिल्ला-चिल्ली होती है। वैसे मैंने भी हिंदी के एक अखबार में इस से संबंधित एक विज्ञापन देख कर सुबह सुबह ही एक रस्म-अदायगी कर छोड़ी थी। लेकिन अब लेटे लेटे कुछ विचार आ रहे हैं जिन्हें अपनी स्लेट पर बेफिक्र हो कर लिख रहा हूं।

विचार आ रहा है कि तरह तरह के बहुत कुछ दावे हम लोग विभिन्न फोरमों पर सुनते रहते हैं कि पानी के क्षेत्र में हम लोग कुछ समय पहले कहां थे और अब देखो कहां के कहां आ गये हैं। सोच रहा हूं कि सचमुच ही कहां से कहां आ गये हैं.....विचार आया कि बचपन से शुरू कर के देख तो लूं कि आखिर हम ने इस दिशा में आखिर कितने परचम लहरा दिये हैं.....

स्कूल में पानी ...... सोच रहा हूं हम लोगों को कहां स्कूल में पानी ले कर जाने की ज़रूरत पड़ती थी !...बस, स्कूल में लगे हैंड-पंप से पानी भी पी लिया करते थे और एक दूसरे के ऊपर थोड़ा बहुत छिड़क कर रोज़ाना होली का आनंद भी लूट लिया करते थे ...जब फिर बड़े स्कूल में गये तो एक बहुत बड़ी पानी की टैंकी से अपनी ज़रूरत पूरी कर लिया करते थे जिस के नीचे 10-12 टूटियां लगी रहती थीं। और अब देखो, हमारे बच्चों को भारी भरकम बस्ते (हम तो भई इन्हें बस्ते ही कहते थे !) के साथ ही साथ इस पानी की बोतल का बोझ उठाने की भी चिंता सताये रहती है। और गर्मी के दिनों में तो अकसर यह बोतल भी कम पड़ जाती है। तो, अपने मन से पूछ रहा हूं कि क्या इस को विकास मान लूं कि छोटे बच्चों को अपनी सेहत के लिये पानी भी उठा कर ले जाने को विवश होना पड़ रहा है। लेकिन बच्चे भी क्या करें और इन के मां-बाप भी क्या करें.......हम ने तो प्राकृतिक संसाधनों का शोषण ही इतना कर दिया है कि क्या कहूं !

हाटेल में पानी .......जब भी बचपन में हम कभी होटल वगैरह या शादी-पार्टी (कहो तो उंगलियों के पोरों पर गिन कर रख दूं !!)..में जाते थे तो पानी पीने से पहले किसी तरह का सोचना थोड़े ही पड़ता था। लेकिन अब जब होटल में जाते हैं तो अकसर पानी की बोतल घर से उठा कर ले जाते हैं। और जब यह बोतल नहीं होती और छोटे बेटे की पानी पीने की इच्छा होती है तो वह झिझकते हुये पूछता है कि पापा, यह वाला पानी पी लूं..............तो हमें भी उतनी ही झिझक के साथ कहना ही पड़ता है कि बेटा, देखना एक-दो घूंट ही पीना, बस अब घर चल ही रहे हैं। तो क्या बच्चों को इस तरह से पानी पीने से भी जब डराया जा रहा है , ऐसे में इसे विकास मान लूं !

विवाह-शादियों का नज़ारा तो देखिये....बारातियों की सेवा के लिये अब तो प्लास्टिक के गिलास भी आते हैं....चाहे पहले बार चखी ( फ्री-फंड में !).....महंगी अंग्रेज़ी शराब के नशे में धुत अस्त-व्यस्त सी गुलाबी पगड़ी डाल कर झूमता हुया, तंदूरी चिकन की एक टंगड़ी को अपने गुटखे से रंगे हुये दांतों से छीलते हुये दुल्हे का मौसा उस पानी के गिलास का एक ही घूंट भरेगा , लेकिन सुबह तो इस तरह के सैंकड़ों प्लास्टिक के गिलास उस बैंकेट हाल के साथ लगते नाले को ब्लाक नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे.................समझ में नहीं आ रहा कि पानी परोसने के इस नये अंदाज़ को क्या विकास मान लूं !

वो दस रूपये वाली पानी की बोतल खरीदने को विकास मान लूं ?...........ट्रेन में दूध के लिये बिलखता किसी का नन्हा मुन्ना बच्चा रो-रो कर जब हार जाता है लेकिन उसे दूध नसीब नहीं होता, तो वह आखिर हार कर अपनी बिल्कुल कमज़ोर सी मां की सूखी छाती पर जब टूट पड़ता है और पास ही में मेरे जैसा कोई बाबू जैंटलमैन उस दस रूपये की पानी की बोतल को ज़रूरत न होने पर भी इसलिये बड़े ठाठ से पी रहा होता है कि यार, स्टेशन आ रहा है और इसे पिये बिना कैसे फैक दूं...... तो क्या इसे विकास मान लूं......................नहीं, नहीं , धिक्कार है ऐसी पानी की बोतल पर जिस पर खर्च किये पैसे से एक बच्चे का पेट भर सकता था।
वैसे तो जब देश में पेय-जल की समस्या पर हो रहे सैमीनारों के दौरान स्टेज पर इस तरह के पानी की दर्जनों बोतलें नज़र आने पर जो विचार मेरे मन को उद्वेलित करते हैं उन का मैं यहां पर जिक्र नहीं करना चाहूंगा..........फिर कभी देखूंगा....अभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूँ।
पीछे कितना आ रहा था कि इन पानी की बोतलों में यह है ,वो है, कीटनाशकों के अवशेष हैं.....लेकिन क्या इन की बिक्री में कोई कमी दिख रही है, मुझे तो नहीं लगता। यही तो वास्तविक विकास है , और क्या !!

पानी शुद्धिकरण ...एक अच्छा-खासा उद्योग.................बचपन में नानी के यहां जाते थे तो हैंड-पंप का मीठा पानी पी कर मजा करते थे। थोड़े बड़े हुये तो देखा कि मां पानी की टूटी के ऊपर मल-मल के कपड़े की एक लीर बांध देती है ताकि मिट्टी रूक जाये और सांप वगैरह न आ जाये........थोड़े और बड़े हुये तो देखा कि एक फिल्टर सा पानी को स्टोर करने के लिये इस्तेमाल किया जाने लगा है......कुछ समय बाद शायद उस में लगी कैंडल्स के साथ भी प्राबलम होने लगी तो एक छोटा सा फिल्टर पानी की टूटी पर लगाने वाला ही 100-150 रूपये का चल निकला। बचपन में तो पानी के शुद्धिकरण के बारे में कभी सुना ही न था...बस एक बार याद है कि बड़े भाई को दस्त लगे थे तो, हमारे सामने रह रहे एक झोला-छाप नकली डाक्टर (तब पता नहीं था कि कौन असली और कौन नकली होता है, हमारा बचपन गांव जैसे माहौल में ही बीता है !)…..ने एक टीका लगा कर यह निर्देश दे दिया था कि पप्पू (मेरा बड़ा भाई ) को दो-तीन दिन पानी उबाल कर ही देना होगा।

वैसे सोचता हूं कि कितना आसान है मरीज़ों को इस तरह की सलाह दे देना कि पानी उबाल कर पी लेना.....लेकिन क्या यह इतना प्रैक्टीकल आइडिया है?......चूंकि मैं अपनी ही स्लेट पर लिख रहा हूं और ठीक-गलत की किसी तरह की परवाह किये बिना सब कुछ लिख रहा हूं कि मुझे कभी भी यह आइडिया प्रैक्टीकल लगा ही नहीं। हां, जब तक घर में कोई बीमार है तो समझ में आता है कि घर की गृहिणी यह एक्स्ट्रा काम खुशी खुशी कर लेगी...........लेकिन जिस तरह के ज़्यादातर लोगों के हालात हैं , परिस्थितयां हैं , ऐसे में मुझे इस तरह की किसी को सलाह हमेशा के लिये दे देना भी एक धकौंसलेबाजी ज़्यादा लगती है। लेकिन जो लोग यह पानी उबाल कर पीने की अपनी आदत निभा पा रहे हैं , वे बधाई के पात्र हैं............और उन्हें हमेशा यह आदत कायम रखनी चाहिये क्योंकि पानी को उबाल कर पीना बहुत फायदेमंद है।

वैसे तो मुझे इन क्लोरीन की गोलियों की भी एक आपबीती याद है। हमारे शहर में 1995 में बाढ़ आ गई.....मैं और मेरी मां हम जब एक-डेढ़ महीने बाद वापिस अपने घर पहुंचे तो वहां पर यह बात की बहुत चर्चा थी कि पानी में क्लोरीन की गोलियां डाल कर पीना होगा ताकि कीटाणुरहित जल का ही सेवन किया जाये। लेकिन सारा शहर छान लेने पर भी जब वे नहीं मिलीं तो हम ने उस मटमैले पानी को उबाल कर ही कितने दिनों तक इस्तेमाल किया ।
लेकिन अब मैं अपने मरीज़ों को इतना ज़रूर कहता हूं कि आप में से जो लोग भी अफोर्ड कर सकते हैं वे कोई भी इलैक्ट्रोनिक संयंत्र रसोई-घर में ज़रूर लगवा लें...क्योंकि यह अब किसी तरह की भौतिक सम्पन्नता का प्रतीक रह कर एक ज़रूरत ही बन चुका है। चूंकि ये अभी भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं.....लगभग पांच हज़ार की मशीन और लगभग एक हज़ार रूपये की सालाना एएमसी.......इसलिये जब रतन टाटा ने नैनो कार के दर्शन करवाये तो उन्होंने आम आदमी के लिये एक जल-शुद्धिकरण यंत्र बाज़ार में उतारने की बात कही तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे नैनो से भी ज़्यादा खुशी इस यंत्र की होगी..।

अब छोड़े इन बातों को इधर ही, इन बातों को खींचने की तो कोई लिमिट है ही नहीं, जितना खींचेंगे खिंचती चली जायेंगी। तो , मैंने भी अपने अंदाज़ में विश्व जल दिवस मना लिया है। मैंने आज सुबह सुबह घऱ में कल ही लाये गये नये मटके से पानी ग्रहण कर लिया है। मेरी प्यास तो उस लंबी सी डंडी वाले स्टील के बर्तन से मटके से निकला पानी ही बिना मुंह लगाये पी कर ही बुझती है। एक साल में लगभग 8-9 महीने जब तक कि मटके के ठंडे पानी से दांत में सिहरन नहीं उठने लग जाती , तब तक तो मैं तो भई इसी तरह से ही पानी पीने का आदि हूं। हां, वो बात अलग है कि मटके में पानी उस इलैक्ट्रोनिक संयंत्र द्वारा शुद्ध किया ही डाला जाता है। सोचता हूं कि इस जालिम मटके के पानी की महक में भी क्या गज़ब की बात है कि बंदे को मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू भी साथ में हर बार उस की माटी की याद दिलाती है जिससे उस के शरीर की प्यास ही नहीं रूह की प्यास भी मिटती दिखती है। अब मुझे लगता है कि फिलासफी झाड़ने पर उतरने लगा हूं..............इसलिये पोस्ट को तुरंत पब्लिश करने में ही समझदारी है।

Friday, March 21, 2008

आखिर ये हैं क्या---होली के रंग, रंगीन मिट्टी, सफेदी या चाक मिट्टी....

बचपन में जहां तक होली की यादें हैं उन में बस रेहड़ीयां ही याद हैं जिन के ऊपर छोटी-छोटी थैलियों में तरह तरह के रंग बिका करते थे। लेकिन आज जब बाज़ार में तो कुछ अजीब ही नज़ारा देखने को मिला......तरह तरह के रंग तो बिक रहे थे...लेकिन जिस तरह से बिक रहे थे , वो तरीका देख कर बहुत अचंभा हुया । आप भी इन तस्वीरों में देख सकते हैं कि इतनी इतनी बड़ी बोरियों में ये तथाकथित रंग बिक रहे हैं कि यकीन ही नहीं हो पा रहा कि ये रंग ही हैं। इन को देख कर हंसी ज्यादा आ रही है क्योंकि ये तो रंगीन मिट्टी , चाक, सफेदी के इलावा तो मुझे कुछ भी नहीं लग रहे। लेकिन अगर आप को इस तरह से बिक रहे रंगों के बारे में कुछ विस्तृत जानकारी हो तो कृपया बतलाईएगा।

इन बिक रहे रंगों की भी अलग अलग श्रेणीयां हैं....एक है बीस रूपये किलो और दूसरी क्वालिटी थी चालीस रुपये किलो !

अब मेरी हिमाकत देखिये....मैं आप सब के लिये इन की फोटो खींचने में इतना तल्लीन था कि मुझे यह भी नहीं पता कि बेटे ने गुब्बारों और पिचकारी के इलावा कुछ रंग भी खरीदे हैं या नहीं। अगर रंग भी खरीदे हैं तो कल पूरा ध्यान रखना पड़ेगा। वैसे मैंने दुकानदार से पूछ ही लिया कि वैसे इन रंगों में होता क्या है। उस का जवाब भी तो पहले ही से तैयार था......... यह हमें कुछ नहीं पता...बस जो पीछे से आ रहा है, हम बेच देते हैं।उस की बात सुन मेरे मन में क्या विचार आया, अब यह भी आप को बताना पड़ेगा क्या !

चलिये, छोड़िये....काहे के लिये होली मूड को खराब किया जाए !


अच्छा तो आप सब को होली की बहुत बहुत मुबारकबाद। और यह लीजिये हमारी तरफ से होली का तोहफा.....बस क्लिक मारिये और सुन लीजिये।

रंगों का त्योहार.......न लाये रोगों की बौछार !

कहते हैं कि भगवान कृष्ण टेसू के फूलों से होली खेला करते थे जो कि होली का एक पारंपरिक रंग है। ये फूल तो वैसे औषधीय गुणों से भी लैस होते हैं। इन्हें एक रात के लिये पानी में भिगो दिया जाता है, खुशबूदार संतरी पीले रंग के लिये इन्हें उबाला भी जा सकता है। प्रकृति में तो सभी रंगों का भंडार है और इन्हीं से प्राकृतिक रंग बनाये जाते हैं। कुछ रंग तो हम आसानी से घर पर ही बना सकते हैं।


जैसे जैसे समय बदलता गया.....अन्य चीज़ों के साथ-साथ होली का स्वरूप भी अच्छा खासा बदला हुया दिख रहा है। होली के दिन हम चमकीले रंग वाले पेंट से लोगों के चेहरों को पुते हुये देखते हैं। और कुछ नहीं तो पानी से भरी बाल्टीयां, पानी से भरे गुब्बारे राहगीरों पर फैंक कर ही उन्हें परेशान करने का एक सिलसिला कईँ सालों से शुरू है।


होली रंगों और खुशियों का त्योहार है...लेकिन बाज़ार में बिकने वाले रंग कोरे कैमिकल्स हैं....इन में ऐसे अनेक पदार्थ मौजूद रहते हैं जो हम सब की सेहत तो खराब करते ही हैं, इस के साथ ही साथ ये कैमिकल्स पानी में रहने वाले जीवों के लिये भी विषैले होते हैं। इन्हीं कैमिकल्स की वजह से चमड़ी एवं आंखों के रोगों के साथ-साथ दमा एवं एलर्जी भी अकसर हो जाती है। एक अनुमान के अनुसार यदि दिल्ली की आधी जनसंख्या भी करीब 100ग्राम कैमिकल्स युक्त रंग प्रति व्यक्ति इस्तेमाल करे तो इससे लगभग 70टन कैमिकल्स यमुना में मिलने की संभावना रहती है।


विभिन्न तरह के पेंटस जिन में कारखानों में इस्तेमाल होने वाले रंग, इंजन आयल, कापर सल्फेट, क्रोमियम आयोडाइड, एल्यूमीनियम ब्रोमाइड, लैड ऑक्साइड एवं कूटा हुया कांच .........ये सब कैमिकल्स को निःसंदेह चमकीला तो बना देते हैं, लेकिन हमारे शरीर को इनसे होने वाले नुकसान के रूप में बहुत बड़ा मोल चुकाना पड़ता है। इन के दुष्प्रभावों से हमारा शरीर, मन और मस्तिष्क कईं बार स्थायी तौर पर प्रभावित हो सकता है। बाज़ार में उपलब्ध कुछ रासायनिक रंगों की थोड़ी चर्चा करते हैं.....

काला रंग (लैड ऑक्साइड

)...यह रंग गुर्दे व मस्तिष्क पर बुरा प्रभाव डालता है।

हरा रंग( कॉपर सल्फेट)...इसे आम भाषा में नीला थोथा कहते हैं। इस को लगाने से आँखों की एलर्जी व अस्थायी अंधापन हो सकता है, वैसे तो इस कैमिकल से होने वाले भयंकर घातक प्रभावों के बारे में तो आप सब भली-भांति परिचित ही हैं।

बैंगनी रंग( क्रोमियम ऑयोडाइड)...इस के इस्तेमाल से दमा ओर एलर्जी होती है।

सिल्वर रंग( एल्यूमीनियम ब्रोमाइड)...यह रंग कैंसर पैदा कर सकता है।

लाल रंग ( मरक्यूरिक सल्फाइट)...इस के इस्तेमाल से चमड़ी का कैंसर, दिमागी कमज़ोरी, लकवा हो सकता है और दृष्टि पर असर पड़ सकता है।


तो फिर क्या सोचा है आपने ?.....सुरक्षित होली खेलने के लिये हमें प्राकृतिक रंगों का ही उपयोग करना चाहिये जो कि कईं जगहों पर उपलब्ध होते हैं लेकिन विभिन्न प्रकार के फूलों से इन्हें घर में ही प्राप्त कर लेते हैं। कईं लोग लाल चंदन पावडर से होली खेलते हैं। एक बात है ना....होली कैसे भी खेलें...लेकिन प्रेम से....होली को गंदे तरीके से खेल कर ना तो हमें अपना और ना ही किसी और का मज़ा किरकिरा करना है। जहां तक हो सके...अपने मित्रों, रिश्तेदारों एवं परिचितों के साथ ही होली खेलें....ऐसे ही हर राहगीर पर पानी फैंकना तो होली ना हुई!


वैसे मुझे इस समय ध्यान आ रहा है कि होली के त्योहार पर फिल्माए गये फिल्मों के सुप्रसिद्ध गीत जो सुबह से ही रेडियो, केबल और लाउड-स्पीकरों पर उस दिन बजते रहते हैं, वे लोगों के उत्साह में चार चांद लगाने का काम करते हैं। लेकिन मेरी पसंद में सब से ऊपर शोले फिल्म का यह वाली गीत है........जिसे मैं होली के बिना भी बार-बार सुन लेता हूं और इस में ऊधम मचा रहे हर बंदे के फन की दाद दिये बिना नहीं रह सकता। आप को इन सब हुड़दंगियों के साथ यह उत्सव मनाने से कौन रोक रहा है ............तो मारिये एक क्लिक और हो जाइए शुरू !!


PS…..पंकज अवधिया जी , आप तो वनस्पति विज्ञान के बहुत बड़े शोधकर्त्ता हो, मेरी एक समस्या का समाधान कीजिये। मैं इन मच्छरों से बहुत परेशान हूं......सुबह सुबह ढंग से पोस्ट भी नहीं लिखने देते। इसलिये हम सब लोगों को आप यह बतलायें कि क्या कोई ऐसा घास,कोई ऐसा पौधा नहीं बना ...या कोई ऐसी चीज़ जो इन पौधों से प्राप्त होती हो जिस की धूनि जला कर इन मच्छरों को दूर भगाया जा सके। मुझे आशा है कि आप के पास इस का भी ज़रूर कोई फार्मूला होगा......तो शेयर कीजियेगा। दरअसल बात यह भी है ना कि इन कैमिकल युक्त मच्छर-भगाऊ या मच्छर-मारू टिकियों एवं कॉयलों के ज़्यादा इस्तेमाल से भी डर ही लगता है....रात को तो चलिये मज़बूरी होती है लेकिन सुबह उठ कर इन्हें इस्तेमाल करने की इच्छा नहीं होती। अवधिया जी, आप ही इस परेशानी का हल निकाल सकते हैं। एडवांस में धन्यवाद और होली की मुबारकबाद....।

रूकावट के लिये खेद है............अब आप होली के रंग में रंगे इन हुड़दंगियों के जश्न में शामिल हो सकते हैं।


Wednesday, March 19, 2008

अब इस कंबल के बारे में भी सोचना पड़ेगा क्या !



बहुत ही छोटी-छोटी बातें हैं जिन्हें हम अकसर जाने-अनजाने नज़रअंदाज़ कर ही देते हैं...आज कुछ ऐसी ही बातों की चर्चा करते हैं। मुझे किसी के भी यहां जाकर कंबल ओढ़ना कभी नहीं भाता। अब आप भी सोच रहे होंगे कि यह कौन सी नई सनक सवार हो गई भला !!....जी नहीं, यह कोई सनक-वनक नहीं है। आज कल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो यह एक अच्छा खासा मुद्दा है।

मुझे किसी के यहां जाकर और यहां तक अपने ही घर में कंबल ओढ़ने में बहुत संकोच होता है। आप इस का कारण समझ ही रहे होंगे !....इस का कारण केवल यही है कि अकसर हमारे घरों में इस्तेमाल होने वाले ये कंबल वगैरा विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं की खान होते हैं।

वह पल बहुत अजीब लगता है जब कभी घरों में इस तरह की बातें चलती हैं कि ये कंबल देख रहे हो, जब मुन्ने के पापा ने नई नई इंटर पास की थी...तब खरीदा था...और आज भी देख लो, वैसा का वैसा ही लगता है। लेकिन लगता ही है ना, लगने का क्या है........जो इस ने अरबों-खरबों कीटाणुओं को अपने अंदर छिपाया हुया है , उस का उल्लेख कौन करेगा ?.....जी हां, हमारे घरों में इस्तेमाल हो रहे कंबल कुछ इसी तरह के ही होते हैं। इन को ड्राई-क्लीन करवाने का कोई कल्चर न तो हमारे देश में कभी रहा और मेरे ख्याल में कभी हो ही नहीं पायेगा। वैसे बात वह भी तो है कि जब दो-साल में एक गर्म-सूट ड्राई-क्लीन करवाने में ही आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं, तो क्या अब हम कंबलों को ड्राई-क्लीन करवाने के सपने कैसे देखें ?....बात बिल्कुल सही भी है...वैसे हम लोगों के कपड़े खरीदते समय निर्णय भी तो कईं बार इस बार पर ही निर्भर करते हैं कि भई, कहीं इस को ड्राई-क्लीन करवाने की ज़रूरत तो नहीं ना पड़ेगी।


खैर बात कंबल की चल रही थी......और वैसे भी हम अपने घरों में देखते हैं कि इन कंबलों का तो बंटवारा कहां होता है कि यह पपू का है , यह टीटू वाला है....। और यहां तक मेहमान वगैरा भी वही कंबल इस्तेमाल करते हैं। और जब कभी किसी की तबीयत थोड़ी नासाज़ हो, कोई खांसी-जुकाम से बेज़ार हो ..... तो यही कंबल पसीने से लथ-पथ होते हैं। और फिर अगले दिन वही कंबल दूसरे सदस्य द्वारा ओढ़ा जाता है। संक्षेप में बात करें तो यही है कि इस प्रकार से कंबलों का प्रयोग करना स्वास्थ्य के लिये ठीक नहीं है।

तो क्या करें अब कंबल लेना भी बंद कर दें ?....नहीं, नहीं ,ऐसी बात नहीं है। लेकिन पहले लोग जो कंबल के ऊपर सूती कवर डाल कर रखते थे, यह बहुत ही बढ़िया आइडिया है क्योंकि इन्हें थोड़े थोड़े समय के बाद धो दिया जाता था ताकि अंदर कंबल काफी हद तक साफ़-स्वच्छ रह सके। और फिर कंबल को नियमित तौर पर धूप में सेंका भी जाता था ..ताकि उसे कीटाणुरहित किया जा सके। इसलिये हमें इन सूती कवरों को वापिस इन कंबलों पर लगाना चाहिये। नहीं तो इन महंगे ग्लैमरस कंबलों बिना किसी प्रकार के कवर के बीमारियों की खान बना डालें ...,यह फैसला हमारे अपने हाथ में ही है।

आज कल जो नये नये मैटीरियल के कंबल बाज़ारों में दिखने लग गये हैं ...कहने को तो कह देते हैं कि वे धोये जा सकते हैं । लेकिन हम लोग अकसर प्रैक्टिस में देखते हैं कि कौन इन्हें नियमित धोने के चक्कर में पड़ता है। वैसे मुझे याद आ रहा है कि एक बार एक ऐसे ही कंबल को धोने के बाद मैंने भी उसे बाहर बरामदे में सुखाने के लिये बाहर घसीटने में थोड़ी मदद की थी........यकीन मानिये , नानी याद आ गई थी। कहने से भाव है कि मान भी लिया जाये कि यह धोये जा सकते हैं लेकिन यह आइडिया कुछ ज़्यादा प्रैक्टीकल नहीं है....हां, अगर कहीं ये नियमित धुलते हैं तो बहुत बढ़िया बात है।

लेकिन जहां भी संभव हो, इन कंबलों को सूती कवह डले ही होने चाहियें क्योंकि इन में जमा धूल-मिट्टी-जीवाणु भी तरह तरह की एलर्जी बढ़ाने में पूरी भूमिका निभाते हैं। लेकिन लोग तो अकसर एलर्जी के लिये उत्तरदायी एलेर्जन ढूंढने की अकसर नाकामयाब कोशिश करते हैं लेकिन अपने आसपास ही इस तरह के एलर्जैन्ज़ की तरफ़ ज़्यादा ध्यान ही नहीं देते। तो, आगे से ध्यान दीजियेगा।

यह तो हुई कंबलों की बात, लेकिन परदों का भी कुछ ऐसा ही हाल होता है। अकसर इन्हें तब तक धोया नहीं जाता जब तक इन्हें देखते ही उल्टी करने जैसा न होने लगे। ये भी कईं कईं महीनों तक गंदगी समेटे रहते हैं...। वैसे तो हर घर में ही ..लेकिन जिन घरों में एलर्जी के केस हैं, सांस में तकलीफ़ के मरीज़ हैं, दमा के मरीज़ हैं....उन के लिये तो ये सावधानियां शायद दवाई से भी बढ़ कर हैं। लेकिन हमारी समस्या यही है कि हमें परदे तो चाहिये हीं, लेकिन साथ में हमारी सम्पन्नता का दिखावा भी तो होना चाहिये। इसी चक्कर में इतने भारी भारी परदे शो-पीस के तौर पर टांग दिये जाते हैं कि न तो उन्हें नियमित धोते बने और न ही उतारते बने। अकसर इन्हें धोने के नाम पर कईं बार तो बाई ही काम छोड़ कर भाग जाये !!...आखिर हमें सीधे-सादे हल्के फुल्के ऐसे परदे टांगने में दिक्कत क्या है जिन्हें हम नियमित धुलवा तो सकें।

लेकिन यह बात परदों तक ही तो सीमित नहीं है ना.....आज कल हम लोगों के घर में सोफे सैट देख लो। इन को भी देख कर उल्टी आती है। ये भी अपने अंदर इतनी गंदगी समेटे होते हैं कि क्या कहें !!.....कारण वही कि सब कुछ ..सीट कवर, कुशन वगैरा के ऊपर महंगे महंगे कपड़ों के कवर फिक्स हुया करते हैं..........और पता नहीं इन के ऊपर कितने लोगों का पसीना लगा रहता है, कितने छोटे छोटे बच्चों ने इन्हें कितनी ही बार पवित्र किया होता है( समझ गये ना आप!)…, कितनी बार इन के ऊपर खाने पीने की चीज़े गिर चुकी होती हैं, कितनी बार बच्चे गंदे पैरों से इन के ऊपर उछलते रहते हैं........लेकिन इन के कवर चेंज करने का झंझट भला कौन बार बार ले सकता है .....भई खूब पैसा लगता है.....ऐसे में सालों तक ये गंदगी से भरे रहते हैं। एक दूसरी समस्या इन सोफा-सेटों के साथ यह भी तो है ना कि ये सब इतने भीमकाय होते हैं कि इन के रहते ठीक तरह से कमरे की सामान्य सफाई भी तो नहीं हो पाती ।

अकसर मेरी आब्जर्वेशन है कि लोगों को इन बातों की खास फिक्र है नहीं, उन्हें तो बस अपनी बैठक को चकाचक रखने में ही मज़ा आता है। इसीलिये कईं घरों में तो बच्चों को डराया जाता है कि खबरदार, अगर तुम सोफे की तरफ भी गये, पता है जब कोई आ जाता है तो कितनी शर्म आ जाती है। मेरा इस के बारे में विचार एकदम क्रांतिकारी है ...............शायद बहुत से लोगों को न पच पाये............मेरा विचार है कि घर आप का है, आप के रहने के लिये, बच्चों के लिये ताकि वे पूरी मस्ती कर सकें..............मज़ा कर सकें ताकि बड़े हो कर उन के पास अनगिनत मीठी यादें हों...........इसलिये घरों में सीधे-सादे फ्रेम वाले सोफे हों, कुर्सियां हों जिन के ऊपर कपड़े के इस तरह के कवर हों कि उन्हें आसानी से धुलाया जा सके। इस से एक तो आपका ड्राइंग-रूम साफ-स्वच्छ दिखेगा....दिखेगा ही नहीं , होगा भी.....और बच्चे भी खुश रह कर बिना किसी रोक टोक के जहां मरजी मस्ती कर सकते हैं, ऊधम मचा सकते हैं। और रही बात मेहमानों की , वे ना ही तो महंगे परदे और न ही महंगे, भारी भरकम सोफे देखने आ रहे हैं और न ही एक काजू और दो किशमिश के दाने खाने के लिये......अतिथि के लिये हमारा सत्कार हमारी आंखों से झलकता है.....उसे चाहे हम चटाई पर बैठा कर सादा पानी ही पिला दें....वो हमारी आंखों को पढ़ता है कि उस का स्वागत हुया है या नहीं।

पता नहीं ...मैं भी कहां का कहां निकल जाता हूं...मेरा बेटा वैसे मुझे अकसर चेतावनी देता रहता है कि बापू, अगर तुम ने ब्लोगगिरी में कुछ करना है ना तो कुछ टैक्नीकल लिखा करो, यह फलसफा आज कल कोई पढ़ना नहीं चाहता । खैर, यह उस का अपना ओपिनियन है और उसे अपना ओपिनियन रखने का पूरा पूरा हक है। लेकिन मुझे जो अच्छा लगता है , मैं तो भई लिख कर फारिग हो जाता हूं, और मुझे क्या चाहिये। लेकिन आज यह कंबल, परदों एवं सोफों वाली बात है बहुत ही ..बहुत ही ...बहुत ज़्यादा ही महत्त्वपूर्ण ............इसिलये इस के बारे में थोड़ा ध्यान करियेगा.....ताकि हम अपने इर्द-गिर्द इन कीटाणुओं, जीवाणुओं के अंबार तो न लगा लें।