Sunday, April 6, 2008

इन ढाबे वालों से ऐसी उम्मीद न थी !



वैसे तो इस समय सुबह के पांच भी नहीं बजे और किसी भी लिहाज से खाने का समय नहीं है। लेकिन यह ढाबे वाली खबर देख कर मुझे पूरा विश्वास है कि आप की तो भूख ही छू-मंतर हो जायेगी। ले-देकर इन देश की जनता जनार्दन के पास पेट में दो-रोटी डालने के लिये एक ही तो ताज़ा, सस्ता और साफ़-सुथरा विकल्प था.....ढाबे का खाना।


अकसर हम लोग जब भी कहीं बाहर हुया करते हैं तो कहते ही हैं ना कि चलो, ढाबे में ही चलते हैं क्योंकि यह बात हम लोगों के मन में विश्वास कर चुकी है कि इन ढाबों पर तो सब कुछ विशेषकर वहां मिलने वाली बढ़िया सी दाल( तड़का मार के !)….तो ताज़ी मिल ही जायेगी............लेकिन इस रिपोर्ट ने तो उस दाल का ज़ायका ही खराब कर दिया है ...........आप ने भी कभी सोचा न होगा कि इस तरह के रासायन ढाबों में भी इस्तेमाल होते हैं ताकि शोरबा स्वादिष्ट बन जाये।


वो अलग बात है कि मुझे यह पढ़ कर बेहद दुःख हुया क्योंकि मेरे विश्वास को ठेस लगी है.....मुझे ही क्या, सोच रहा हूं कि इस देश की आम जनता की पीठ में किसी ने छुरा घोंपा है.......लेकिन इस हैल्थ-रिपोर्ट को देख कर खुशी इसलिये हुई कि इस में सब कुछ बहुत बैलेंस्ड तरीके से कवर किया गया है। बात सीधे सादे ढंग से कहने के कारण सीधी दिल में उतरती है। शायद इसीलिये मैंने भी आज से एक फैसला किया है....आज से ढाबे से लाई गई सब्जी/भाजी जहां तक हो सके नहीं खाऊंगा....हां, कहीं बाहर गये हुये एमरजैंसी हुई तो बात और है, लेकिन वो ढाबे के खाने का शौकिया लुत्फ लूटना आज से बंद, वैसे मैं तो पहले ही से इन की मैदे की बनी कच्ची-कच्ची रोटियां खा-खा कर अपनी तबीयत खराब होने से परेशान रहता था, लेकिन इन के द्वारा तैयार इस दाल-सब्जी के बारे में छपी खबर ने तो मुंह का सारा स्वाद ही खराब कर दिया है.....सोचता हूं कि उठ कर ब्रुश कर ही लूं !

Friday, April 4, 2008

पानी साफ ही तो है.......क्या फर्क पड़ता है !


केवल इतना कह देने से ही नहीं चल पायेगा कि हमारे शहर में तो सीधा फलां-फलां नदी का ही पानी आता है, साफ़-स्वच्छ दिखता है ....इसलिये पानी के बारे में कभी इतना सोचा नहीं, अब कौन इस पानी-वानी की शुद्धता के चक्कर में पड़े। लेकिन यह सरासर एक गलत-फहमी ही है। क्योंकि जो पानी हमें साफ़-स्वच्छ दिखता है....उस में तरह तरह की कैमीकल एवं बैक्टीरीयोलॉजिकल अशुद्दियां हो सकती हैं जो हमें तरह तरह के रोग दे सकती हैं। आज जिस तरह से हवा-पानी-वातावरण प्रदूषित हैं, ऐसे में हमें पीने वाले पानी के बारे में भी अपना यह मांइड-सैट बदलना ही होगा।


पानी का क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिये। तो क्या बोतल वाली पानी ही घर में भी शुरू कर दिया जाये ?.....ना तो इस की शायद इतनी ज़रूरत है और ना ही यह 99 प्रतिशत लोगों( कहने की इच्छा तो 99.9 प्रतिशत लोगों की हो रही है) के वश की बात है।


अकसर एक बात मुझे बहुत सुनने में मिलती है कि लोग एक्वागार्ड का पानी इसलिये नहीं पीते ....क्योंकि उन्हें लगता है कि अब पानी भी इतना शुद्ध पीना शुरू कर देंगे तो शरीर की इम्यूनिटी क्या करेगी ...........उसे भी तो कोई काम दे कर रखना है.....ऐसा ना हो कि ऐसा पानी पीने से हमारे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता ही खत्म हो जाये।


वैसे एक बात बता दूं कि आज के दौर में ऐसी सोच बिल्कुल बेबुनियाद ही नहीं...बल्कि खतरनाक भी है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के इलावा दूसरे लोगों को तो यह पता ही नहीं कि आज कल पानी का प्रदूषण किस स्तर पर पहुंचा हुया है। और रही बात शरीर की इम्यूनिटी खत्म होने का डर............इस देश में रहते हुये उस की तो आप चिंता ना करें क्योंकि उस इम्यूनिटी को पूरी लिमिट पर काम करने के बहुत मौके मिलते रहते हैं। और जहां तक पानी की बात है....ठीक है, आप घर में शुद्ध पानी पी लेंगे, ऑफिस में एक्वागार्ड का पानी पी लेंगे...लेकिन फिर भी हम लोग कितनी ऐसी जगह में जाते हैं जैसे किसी के घर, किसी के ऑफिस में....वहां पर जाकर ऐसे वैसे पानी को पीने से मना करना शिष्टाचार के नियमों का हनन लगता है ....सो, ऐसे मौकों पर हम जो कुछ भी मिलता है...चाहे वह कैसा भी हो और किस ढंग से परोसा जा रहा है....हम बहुत कुछ अनदेखा कर के दो-घूंट भर लेने में ही बेहतरी समझते हैं। तो, अपनी इम्यूनिटी को थोड़ा काम सौंपने के लिये बस कुछेक ऐसे ही मौके ठीक हैं.....इस से ज्यादा हम उस से काम लेना चाहेंगे तो अकसर वह भी हाथ खड़े कर के कह देती है..कि यह पड़ा तेरा सिस्टम, अब तूने जो लापरवाहियां की हैं, उन्हें तू ही निपट.....मैं तो आज से 15-20 दिन के लिये छुट्टी पर जा रही हूं क्योंकि जब टायफायड और हैपेटाइटिस ए (पीलिया ) जैसे रोग तूने बुला ही लिये हैं तो मुझे थोड़े दिनों की छुट्टी दे, थोड़े दिन तू भुगत ले....मैं फिर आती हूं, ऐसा कह के इम्यूनिटी अकसर अपने घुटने टेक देती है।


यह जो मैं शिष्टाचार की बात ऊपर कह चुका हूं...इस का भी जितना कम से कम उपयोग हो वही बेहतर है। चलिये, मैं ऐसी कुछ परिस्थितियों में क्या करता हूं बता देता हूं ....शायद किसी का फायदा हो जाये.....बिना किसी लाग-लपेट के अपने अनुभव बांटना अब मेरी तो आदत सी ही हो गई है....


-मैं जब भी किसी भी दुकान पर जाता हूं वहां पानी नहीं पीता हूं( जब तक कि कोई घोर एमरजैंसी ही ना हो)....बस ऐसे ही कुछ भी कह कर टाल जाता हूं कि बस पांच मिनट पहले ही चाय पी है.....( लेकिन ऐसे झूठ बोलने पर कभी अफसोस भी नहीं हुया)।

रैस्टरां वगैरा में भी पानी जितना अवाय्ड हो सके करता हूं , ऐसे ही दो-तीन घूंट पी लेने तक ही सीमित रहता हूं। वैसे अकसर हम लोग कहीं भी ऐसी जगह जायें पानी अपना ही साथ ले कर चलते हैं।

अपने आफिस में भी मैंने पानी कभी नहीं पिया...हां, गर्मी के मौसम में एक बोतल अपने साथ ज़रूर रखता हूं।


बस, बात केवल इतनी ही है कि हमें इस के बारे में थोडा अवेयर रहना होगा............मैं तो अपने मरीज़ों से भी यही कहता हूं कि अब इन एक्वागार्डों वगैरा का इस्तेमाल कोई लग्ज़री नहीं रह गया, ये बिजली की तरह ही ज़रूरी हो गये हैं ....इसलिये जो भी लोग इन को अफोर्ड कर सकते हैं वे इन्हें ज़रूर लगवा लें।


माफ कीजियेगा....मैंने इस पोस्ट दो बार इस एक्वागार्ड का नाम ले लिया है.....ऐसे प्रोड्क्टस के नाम लेना मेरे प्रिंसीपल्स के खिलाफ है.......मेरा इस कंपनी से कुछ लेना-देना नहीं है....मैं तो बस इसे पानी शुद्ध करने के इलैक्ट्रोनिक संयंत्र की जगह ही इस्तेमाल कर रहा हूं क्योंकि अकसर लोग इतनी शुद्ध भाषा समझते नहीं है..तो आप लोग अपनी इच्छा अनुसार किसी भी अच्छी कंपनी का यह संयंत्र तो अपने यहां लगवा ही लें। और जहां तक संभव हो ऐसे पानी को ही अपने वर्क-प्लेस पर ले जायें....अब पता नहीं जितना यह सब कुछ लिख देना आसान है उतना आप लोगों के लिये यह प्रैक्टीकल भी है कि नहीं......पर यह है बहुत ही महत्वपूर्ण !!


एक बात मैंने और बहुत नोटिस की है कि बहुत सारी जगह पर ये एक्वागार्ड तो लगे होते हैं लेकिन उन की मेनटेनैंस पर लोग ध्यान नहीं देते, उन का एएमसी नहीं करवाते जिसके तहत कंपनी सालाना आठ-नौ रूपये में इस की मुरम्मत का सारा जिम्मा लेती है और दो-एक बार कार्बन वगैरा भी चेंज करवाती है......इन संयंत्रों का फायदा ही तभी है जब ये परफैक्ट वर्किंग आर्डर में काम कर रहे होते हैं....नहीं तो क्या फायदा !! इसलिये इस सालाना 800-900 रूपये के खर्च को भी हमें सहर्ष सहन कर लेना चाहिये....अपने सारे परिवार की सेहत की खातिर.....यकीन मानिये, शायद उतने से ज़्यादा तो तरह तरह की पानी से पैदा होने वाली मौसमी बीमारियों की वजह से डाक्टर के भरने वाले बिल में कटौती आ जायेगी।


लेकिन हां, अगर कोई किसी भी कारणवश यह मशीन नहीं लगवा रहा, तो उसे कम से कम पानी उबाल कर ही पीना चाहिये। यह बहुत ज़रूरी है।


और रही बात पानी के साफ दिखने वाली....जब जब भी इस बात पर भरोसा किया है धोखा ही खाया है। कुछ महीने पहले हम लोग कुल्लू-मनाली गये.....रास्ते में जहां भी रूके वहां पर खूब पानी पिया....वहां मनाली पहुंच कर भी अपने रेस्ट-हाउस का ही पानी पीते रहे.....क्योंकि सब ने यही कहा कि यहां तो पानी सब से शुद्ध है....सीधा पहाड़ों से ही आ रहा है.......लेकिन पता तब चला जब वहां से वापिस आते ही सारे का सारा परिवार पेट दर्द, ग्रैस्ट्रोएँटराइटिस और बुखार से एक हफ्ता पड़ा रहा.....तब मन ही मन निश्चय किया कि अगर बाहर घूमने में तीस हज़ार रूपये खर्च कर आते हैं तो आखिर तीन सौ रूपये में पानी की बोतलें खरीद कर पीने में क्या हर्ज़ है.........बस, क्या कहूं.......कि यह मिडिल क्लास मांइड-सैट भी कभी कभी penny- wise but pound-foolish वाली सिचुयेशन में जा फैंकता है।


जाते जाते , एक ही बात कि पानी की शुद्धता से कोई समझौता नहीं ......चाहे दिखने में साफ दिखे, फिर भी उस में हज़ारों जीवाणु आप के शरीर में जाकर उत्पाद मचाने की तैयारी में हो सकते हैं।


अगर कुछ बच गया होगा तो आप की फीडबैक के बाद लिख देंगे।